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________________ लालची तो धोखेबाज कहलाता है। ज्ञानीपुरुष की आज्ञा का उल्लंघन करता है इसलिए वहाँ ज्ञानी की कृपा भी नहीं उतरती । ज्ञानी की आज्ञा में ही रहने का दृढ़ निश्चय हो जाए और मन-वचन-काया से बहुत ही स्ट्रोंग हो जाए, तब जाकर लालच कुछ कम होगा। लालची तो जगत् में किसी को भी सुख नहीं देता, सभी को दुःख ही देता है। कुसंग से लालच घर कर जाता है। कुसंग का असर तो ज़हर से भी खराब है। लालच मूल ज्ञान को प्रकट नहीं होने देता। वह बुद्धिज्ञान में ही जाकर रुक जाता है 1 सब से पहले खुद की भूलें दिखें, उनकी प्रतीति बैठे व विश्वास हो जाए उसके बाद पुरुषार्थ की शुरुआत करके लालच की भूल खत्म कर सकता है। पूजे जाने की लालच तो बाकायदा टोलियाँ तैयार करवाकर खुद को पुजवाता है । उसका फल क्या आता है ? नर्कगति । गुरु बन बैठना और उस पद को भोगना, वह भी लालच है ! यह तो भयंकर रोग माना जाता है। संसार रोग निर्मूल करना हो तो एक जन्म ज्ञानी की अधीनता में बिता देना चाहिए। उनसे अलग दुंदभी (ढोल निगाड़ा) नहीं बजानी चाहिए । जिसे कोई भी लालच नहीं है, उसे भगवान भी नहीं पूछ सकते । ५. मान : गर्व : गारवता मोहनीय कार्य खत्म होने पर ज्ञानावरण टूटते हैं, ऐसा बताते हुए ज्ञानीपुरुष कहते हैं कि 'उन्हें किस चीज़ का मोह था ? उन्हें किसी भी प्रकार का मोह नहीं था । पैसे दो या विषय, कोई मोह नहीं था। सिर्फ मान का ही मोह... और फिर अभिमान का ज़ोर नहीं था । अभिमान तो, जब ममता होती है तब अभिमान होता है । यह तो ममतारहित मान !' 27
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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