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________________ करने का प्रयास किया है, ताकि श्रोता-वाचक वर्ग पौद्गलिक भावो से लौटकर पुनः पुनः नवपद में लीन हो । नवपद-सिद्धचक्र के वर्णन में भी शुरुआत में सामान्य स्वरुप बताकर आगे-आगे सूक्ष्म-सूक्ष्मतर वर्णन और अंत में नवपद के तात्विक-आत्मिक स्वरुप तक ले गए है । वाचक या श्रोता जैसे-जैसे श्रीपाल कथा पढ़ते जाए या सुनते जाए वैसे-वैसे नवपद की गहराई में उतरते जाए, ऐसी कुशलता का उपयोग पूज्यश्रीने किया है । मनोविज्ञान की दृष्टि से बाह्यजीव-पुद्गलानंदी जीवों के भी सुषुप्त मन तक नवपद को स्थिर करने का दृढ़ प्रयत्न किया है । एक बार सिद्धचक्रजी से लगाव हो गया, तो धीरे धीरे पुद्गल से संबंध कमजोर होता जाएगा, पूज्यश्री ने यह सिद्धान्त अपनाया है पूज्यश्रीने श्रीपाल-कथा में लगभग अलग-अलग आठ स्थानों पर अलग-अलग व्यक्तियों के मुख से सिद्धचक्र-नवपद का परिचय, महिमा, विधि, स्वरुप या तात्विक वर्णन करवाया है, और बार-बार स्मृति करवाई है । पहले आठ बार के वर्णन को देखते है - १) कथा के प्रारंभ में गौतम स्वामीजी श्रेणिक महाराजा के समक्ष नवपद महिमा का प्राथमिक वर्णन करते है. २) पूज्य मुनिसुंदरसूरीश्वरजी म.सा मयणा और उंबर के आगे सिद्धचक्र की महिमा और इहलौकिक और परलौकिक प्रभाव का वर्णन करते है । ३) रत्नद्वीप में चारणमुनि ने सिद्धचक्र का वर्णन किया और श्रीपाल को सिद्धचक्रजी कैसे प्रसन्न हो ? यह बताया । ४) श्रीपाल द्वारा किए गए सिद्धचक्र पूजन विधान का विस्तार से सुंदर वर्णन है। ५) श्रीपाल सिद्धचक्र का विस्तार से ध्यान करते है, यह ध्यान-विधि अनुकरणीय है । 60 श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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