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________________ श्रीकान्त आपके जैसे नहीं थे, इसलिए जीवन का कल्याण कर लिया । वो श्रीमती को रोज रात को कहकर हृदय खाली कर देते है। पत्नि भी उनकी आत्मा की चिंता करती है । रोज मना करती है, ऐसा नहीं किया जाता, तब श्रीकांत भी कबूल करते है, और निर्दोष भाव से कहते है, 'अब ऐसे पाप नहीं करूँगा ।'' स्वीकारने के बाद भी दूसरे दिन सुबह वही गिल्ली-डंडा और वही मेदान । रोज शिकार खेलने जाते , रोज श्रीमती समझाती पर श्रीकान्त को पत्नि के प्रति नफरत नहीं है । 'रोज टकटक नहीं करना, क्या रट लगाई है, स्त्रियों को क्या पता शिकार में कितना मजा आता है ?'' श्रीकान्त को ऐसे कोई विचार नहीं आते हैं । वो रोज सरल भाव से कह देते और हृदय खाली कर देते थे। हमारे जीवन में अच्छी-बुरी प्रवृत्ति जिनके आगे निखालिस हृदय से कह सके ऐसा कोई व्यक्ति नहीं । ऐसा कोई तो होना चाहिए जिसके सामने अच्छी-बुरी क्रिया, भावों की तीव्रता-लघुता, उसके पीछे आने वाला आनंद भी व्यक्त कर सके । पाप तो अशुभ है, कचरा है, मुर्दे जैसा है, जितना ज्यादा समय हृदय में रहेगा इतनी ज्यादा बदबू फैलायेगा, जम जाएगा । श्रीकान्त सरल भाव से जैसी बात हुई हो, वैसी कह देते, पत्नि की दो बात भी सुन लेते, तो भी पत्नि के प्रति नापसंदगी का भाव नहीं है। श्रीमती भी चिंता करती की इतनी हिंसा-पाप के बाद कौन सी गति मे जाओगे ? धर्मपत्नि आत्मा की चिंता करती है, मात्र इहलौकिक शरीर, संपत्ति या वासना की चिंता करनेवाली धर्मपत्नि नहीं कहलाती । श्रीमती सतत श्रीकांत की दुर्गति न हो इसकी चिंता करती है । एक बार नगर में ज्ञानी गुरु भगवंत पधारे हैं । उन्हें श्रीकांत राजा के पाप-व्यापार की पूरी बात करती है और दुर्गति से बचने का उपाय पूछती है, तब गुरुवर उन्हें नवपद की आराधना बताते है। श्रीकान्त श्रीमती ने अत्यंत भावपूर्वक पाप के पश्चातापपूर्वक साथ-साथ सिद्धचक्रजी की आराधना की, जिससे वो श्रीकान्त में से श्रीपाल बने । 40 श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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