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________________ अपना सब नजर के सामने जाता दिख रहा है तो भी कोई अफसोसआर्तध्यान नहीं है, बस अपनी मस्ती में ही मस्त है । आत्मभाव में लीन है । धर्म-सिद्धचक्रजी मिलने के पहले भी श्रीपाल में उदात्त गुण वैभव है। जीवन में कोई पाप नहीं है, हृदय साफ हैं । दुश्मनी, चित्त-तंत्र को स्पर्श भी नहीं कर पाई । जो मिला वो भी इकट्ठा करने की भावना नहीं हैं । दूसरो का लेने की बात तो दूर, उनका नुकसान हो ऐसी भी भावना नहीं, अपना कोई ले जाए तो भी उसके पुण्य का ले गया होगा, ऐसी उदात्त भावनाओं में श्रीपाल रमण कर रहे हैं । श्रीकान्त-श्रीपाल दोनों के भावों का आकलन किया, अब अपने विचारों की दिशा तलाशने के लिए अपना अंतर्निरीक्षण करना है, जो सतत आरंभ-समारंभ पाप-व्यापार में मस्त है। मिली हुई संपत्ति के प्रति ममत्व भाव और ज्यादा-ज्यादा पाने की तमन्ना, मेरी मेहनत । पुण्य से मिले हुए पर किसी और का हक नहीं, दूसरो को कष्ट में डालकर आनन्द पाना ये भाव श्रीकांत जैसे है, ऐसे किसी भी भाव में हम भी हो तो समझना कि हम श्रीकांत=मालिक बन बैठे हैं। चाहे जैसी परिस्थिति आए तो समभाव में रहकर परिस्थिति स्वीकारना, दूसकों का अपना करने ही इच्छा भी नहीं करना, अपने कारण किसी को परेशान नहीं करने की भावना हो, पुण्य से मिली संपत्ति में ममत्व भाव नहीं हो, मेरा कुछ नहीं है, पुण्य से जो मिला उसका सदुपयोग करने की भावना हो, दुश्मन के प्रति भी सद्भाव हो, विवेक बुद्धि का प्रकाश झिलमिलाता हो, तो समझना कि श्रीपाल के भावों का झरना भीतर में बह रहा है । अब आराधना के लिए कुछ अंशों में आत्मा की भूमिका तैयार हो गई है। श्रीकान्त का कल्याण क्यों ? यह तो स्पष्ट हो गया कि हम श्रीपाल तो नहीं बन सके तो अब श्रीकान्त बनना है ? श्रीकान्त की तरफ नजर करने पर एक प्रश्न होता है कि श्रीकान्त 438 श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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