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________________ सोंचकर स्वीकारे, शत्रु के प्रति भी मैत्रीभाव हो, अपकारी को भी उपकारी मानता हो, यह सब श्रीपाल के भाव है । यह हमें देखना है कि हम कौन से भावों में रमण करते है । श्रीपाल को संपत्ति, राज्य चाहिए । उन्हे मिल भी जाते हैं, पर वो स्वीकारते नहीं । स्वर्ण-सिद्धि, महाकाल राजा का राज्य, अजितसेन राजा का राज्य, धवल की अमाप संपत्ति सब मिल रहा था, तो भी छोड़ दिया । विवेकबुद्धि नहीं हो तो मात्र लेने और इकट्ठा करने की ही इच्छाएँ होती है । श्रीपाल जो मोहाधीन होते, अविवेकी होते तो श्रीपाल ने यह सब स्वीकार कर लिया होता । मयणा पिता के वचन से श्रीपाल से लग्न करने के लिए तैयार हो गई है, तो भी श्रीपाल के अंतर में खेद है । यह सब विवेकबुद्धि हो तो ही आता है, और यह विवेक कर्म की पराधीनता में नही फँसा हो उसे ही आ सकता है। धवल और अजितसेन दोनों श्रीपाल को जान से मारने के लिए और सब हड़पने के लिए पैंतरे रचते है । श्रीपाल को पता है पर दुश्मन की दुर्जनता देखकर अपनी सज्जनता छूट जाए तो श्रीपाल कैसा ? 'जैसे के साथ तैसा'' सूत्र श्रीपाल का नहीं है । अजितसेन ने राज्य ले लिया है, जान से मारने के लिए सैनिक भेजे है, श्रीपाल तो दुर्जनता और अपकार को देखते भी नहीं है । सब पता है तो भी काका से कहतें हैं कि आपने इतने साल मेरा राज्य सम्हाला, किसी राजा ने हड़प नहीं किया, यह आपका उपकार है । हमारी नजर में धवल भले ही दुर्जन है, पर श्रीपाल तो यही मानते हैं कि धवल सेठ ही मेरे बड़े उपकारी है । इस ऋद्धि समृद्धि का मूल धवल है । धवल मुझे जहाज में नहीं लाए होते तो मेरे पास क्या होता? धवल ने दस गुना किराया लिया, धवल को मृत्यु के मुख से बचाया तो भी उसने मारने का षड़यंत्र रचा । ये सारी बातें कभी श्रीपाल के मन में नहीं आती । श्रीपाल ने कभी किसी को हैरान-परेशान नहीं किया । अपकारी को भी उपकारी मानते हैं । दूसरो की संपत्ति-सत्ता कभी स्वीकार नहीं की। श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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