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________________ श्रीपाल की बढती संपत्ति देखकर धवल को ईर्ष्या होती है । ईर्ष्या उसके अंतर को जला देती हैं । जिसके जीवन में इर्ष्या, असूया, मत्सर का प्रवेश हो जाता है, उसकी कैसी स्थिति होती है ? यह समझने के लिए धवल के सामने नजर करनी चाहिए। नाम धवल है, पर अंतर माया-कपट की कालिमा से भरा है । श्रीपाल के साथ बाहर से पिता जैसा, मित्र जैसा व्यवहार रखता है, पर अंतर में तो सब छीन लेने की और श्रीपाल को मारने की वृत्ति है । श्रीपाल को मालूम होना होने के बावजूद धवल में कभी नफरत नहीं की, कभी तिरस्कार नहीं किया, कभी दुश्मन नहीं माना । बाह्य व्यवहार तो निर्दोष ही किया । आंतरिक व्यवहार भी कलुषित नही किया । यह आराधक भाव का लक्षण है । आराधना अंतरस्पर्शी बनी हो तो आत्मा मैत्रीभाव से वासित होती है । कस्तूरी को खराब स्थान पर रखते हैं तो भी वो सुवास ही फैलाती है । ऐसे ही आराधक आत्मा दुश्मनों की मायाजाल में रहकर भी मैत्री सुवास खोता नहीं है । उपादान की शुद्धि की यह उच्चतम भूमिका है । आराधक आत्मा समझती है कि मेरे हजारों दुश्मन होंगे तो भी वे मेरा मोक्षमार्ग नहीं रोक सकते, पर एक भी व्यक्ति के प्रति शत्रुता का भाव मुझे मोक्षमार्ग में एक कदम भी आगे नहीं बढने देगा। धवल सब छीन लेना चाहता है, अजितसेन ने सब ले लिया है । दोनो जान से मारने के लिए तैयार हुए हैं तो श्रीपाल को दोनों के प्रति उपकारी भाव है । श्रीपाल सीख देते है कि दुश्मन, नुकसान करनेवाले, हैरान करनेवाले के प्रति मैत्री-प्रेम रखना ही धर्म है, एक भी जीव के प्रति दुश्मनी रखना अधर्म है । प्रभु मिले तो निर्भीक बनो। श्रीपाल स्वराज्य पाने के लिए अर्थोपार्जन के लिए निर्भीक बनकर निकले है । किसी भी प्रकार का डर उनके हृदय में नहीं है । है तो केवल स्वराज्य पाने का संकल्प, अदम्य उत्साह । श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा 25
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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