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________________ सिद्धान्त और प्रयोग १७८. 1 1 व्यवस्थित ही नहीं बनाता, अपितु वाक् और मन को भी स्थिरता प्रदान करता है। वर्तमान युग में आसनों की उपयोगिता निर्विवाद सिद्ध है प्रेक्षा स्वरूप उपलब्धि की प्रक्रिया है । व्यक्ति मूढ़ता से बहिर्यात्रा करने लगता है । बहिर्मुखी वृत्ति ही व्यक्ति को स्वरूप से दूर ले जाती है। स्वरूप की दूरी ही आधि-व्याधि और असमाधि का कारण बनती प्रेक्षा- साधना सर्वागीण पद्धति है। इसमें जहां अध्यात्म के शिखरों की चर्चा है, वहां शरीर शुद्धि, श्वास और प्राण-शुद्धि के लिए आसन और प्राणायाम का भी विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता है । 1 आसन के लिए प्रयुक्त होने वाले वस्त्र आदि को भी आसन की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ये आसन सूत, कुशा, तिनके, ऊन आदि के होते हैं। ऊन का आसन श्रेष्ठ माना जाता है। आसन शरीर की सहज स्थिति के लिए है। हठयोग में आसनों के असंख्य प्रकार बताए गए हैं 1 जीव योनियों के समान आसनों की संख्या भी चौरासी लाख है। इनमें से चौरासी आसनों की प्रधानता रही है । समय, क्षेत्र एवं शारीरिक बनावट को ध्यान में रखते हुए प्रेक्षाध्यान की दृष्टि से कुछ चुने हुए आसनों की यहां चर्चा की गई है। शरीर की स्थिति को जैन परम्परा में "कायगुप्ति" कहा गया है । आसन और शक्ति-संवर्धन संस्कार-शुद्धि के साथ संयम एवं शक्ति-संवर्धन के लिए आसन का अभ्यास किया जाता है । स्थिति एवं गति आसन के दो स्वरूप हैं। स्थिति गुप्ति और गति समिति है। इससे संस्कारों का विलय होता है। ध्यान के लिए "स्थित आसन" उपयोगी है। इसमें लम्बे समय तक ठहरा जा सकता है। पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, सुखासन एवं कायोत्सर्ग ये ध्यान- आसन हैं। स्थित- आसन से मांसपेशियों को विश्राम मिलता है। विश्राम की यह स्थिति कायोत्सर्ग का एक प्रकार है । गति वाले आसनों में मांसपेशियों की पारस्परिक गति से शरीर को संतुलित बनाया जाता है। ये पेशियां जोड़ों को व्यवस्थित बनाती हैं तथा गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध सन्तुलन बनाए रखती हैं। इससे शक्ति का संवर्धन होता है। गत्यात्मक आसनों में शरीर के अवयवों को गतिशील करना होता है। यह गति अत्यन्त धीमी तथा सावधानीपूर्वक की जाती है। इन्हें करते समय शरीर की बदलती हुई पेशियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
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