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________________ 97 (4) कोई अज्ञानी अपने को ज्ञानी मानकर रुचिपूर्वक हिंसा में प्रवृत्ति करेगा तो उसे निश्चित ही पापबन्ध होगा, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। सप्तम अध्याय (5) वस्तुतः ज्ञानी को तो परजीव को मारने या जिलाने का अभिप्राय ही नहीं होता, उसका अभिप्राय तो ऐसा है कि 'मैं तो चैतन्यघन प्रभु पूर्ण ज्ञाता-दृष्टा हूँ।' वह कभी राग का व पर का आत्मा के साथ एकत्व नहीं करता । (6) जो मारने या बचाने का अभिप्राय रखता है, राग में रुचि रखता है और ऐसा मानता या कहता है कि 'मुझे परघात से बन्ध नहीं होता क्योंकि मैं पर को मार ही नहीं सकता या मारता ही नहीं हूँ सो यह उसकी सर्वथा एकान्त मिथ्या मान्यता है, उसने वस्तुतः अपने ज्ञाता - दृष्टा स्वभाव का ही नाश कर दिया है ऐसी स्थिति में उसे स्वरूप की प्राप्ति होना सम्भव नहीं - है । I (7) आगम में दया के अनेक प्रकार के भेद कहे गये हैं, उनमें एक स्वदया व परदया के रूप में भी भेद कहा गया है। स्वदया अर्थात् अन्तरङ्ग में रागरहित निर्विकार परिणाम की उत्पत्ति, यह स्वदया धर्म है संसारी जीवों ने पर की दया, जो कि पुण्यभावरूप है, वह तो अनन्त बार की, पर उससे आत्मा का कल्याण नहीं हुआ। यदि कोई एक बार भी अपने पर दया करे तो उसका अनन्त जन्ममरण का अभाव हो सकता है तथा अनन्त दुःखों से बच सकता है ऐसी स्वदया ही वस्तुतः धर्म है, जो कि वीतरागभावरूप होती है। इस प्रकार कानजीस्वामी अहिंसा की आत्मकेन्द्रित परिभाषा के पक्षधर हैं। उनका मानना है कि यही सही परिभाषा है तथा बाह्य अहिंसा भी इसी से वास्तव में सफल हो सकती है। अपने हजारों प्रवचनों में उन्होंने इस विषय पर अपने विचार कई स्थलों पर प्रगट किये हैं उसका विस्तार से विवेचन उनके प्रवचन साहित्य में उपलब्ध है। 1. सभी अंश प्रवचनरत्नाकर, भाग-8 से संगृहीत
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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