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________________ चतुर्थ अध्याय यदि इस तरह के तर्कों को उचित मान लिया जाय तो पूरे विश्व में दिनों दिन बढ़कर विकराल रूप ले रही मनुष्यों की जनसंख्या के विषय में भी यही तर्क लागू हो सकता है, तब क्या मनुष्यों को मार-मारकर जनसंख्या का नियन्त्रण उचित होगा? वास्तविकता तो यही है कि प्रकृति स्वयं अपना सन्तुलन बनाना जानती है; उसे अपना कार्य अपने आप करने देना चाहिए। हम उसमें हस्तक्षेप करके बाधक न बनकर हिंसक मनोवृत्ति से स्वयं को अलग रखें। यही प्रकृति के साथ हमारा बहुत बड़ा सहयोग होगा। नयी खोजों से निष्कर्ष सामने आये हैं कि जानवरों, जीव-जन्तुओं की कमी और उनकी प्रजातियों के समाप्त होने से हमारा पर्यावरण असन्तुलित हो रहा है और पृथ्वी विनाश की ओर बढ़ रही है।' हिंसा के प्रकार - हिंसा के अनेक प्रकार हैं। विविध माध्यमों से, विविध तरीकों से हिंसा होती है। जैन परम्परा में स्थूलरूप से हिंसा के चार भेद इस प्रकार माने गए हैं - 1. सङ्कल्पी हिंसा - सङ्कल्पपूर्वक किसी प्राणी को पीड़ा देना या उसका वध करना 'सङ्कल्पी हिंसा' है। आतंकवाद, साम्प्रदायिक दङ्गों, जाति-विरोधी हमलों और माँस-भक्षण आदि के लिए किया गया शिकार, इत्यादि प्रवृत्तियों में होने वाली हिंसा इस परिभाषा में आती है। धार्मिक अनुष्ठानों का बहाना लेकर अथवा देवी-देवताओं के समक्ष की जाने वाली बलि आदि प्रथाएँ भी सङ्कल्पी हिंसा के अन्तर्गत ही हैं। 2. आरम्भी हिंसा - घर गृहस्थी एवं अपने जीवन के आवश्यक कार्यों में; जैसे, भोजन बनाने, नहाने-धोने, वस्तुओं को रखने-उठाने, चलने 1. गत दो हजार वर्षों में लगभग 160 स्तनपायी जीव, 88 पक्षी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है और वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार आगामी 25 वर्षों में एक प्रजाति प्रति मिनट की दर से विलुप्त हो जायेंगी। -विज्ञान प्रगति, अक्टूबर-99, पृ. 47
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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