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________________ तृतीय अध्याय 33 भारत के दूसरे राष्ट्रपति और विश्वविख्यात दार्शनिक सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णनन ने अपनी पुस्तक 'इण्डियन फिलॉसफी' (प्रथम खण्ड) में जैनधर्म की प्राचीनता बतलाते हुए लिखा है - "प्रमाण उपलब्ध हैं, जो बताते हैं कि बहुत पहले से ही, प्रथम शताब्दी (ईसा पूर्व) से ही ऐसे लोग थे, जो ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर की उपासना करते थे। इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं कि वर्द्धमान अथवा पार्श्वनाथ से पूर्व से ही जैनधर्म प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि, तीन तीर्थङ्करों के नाम उल्लिखित हैं। भगवद् पुराण इस विचार का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के प्रवर्तक थे।" इसी प्रकार राष्ट्रकवि और विद्वान रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं- "जैनधर्म अधिक, बहुत अधिक प्राचीन है, बल्कि यह उतना ही पुराना है, जितना वैदिकधर्म। जैन अनुश्रुति के अनुसार चौदह मनु हुए हैं। अन्तिम मनु नाभिराय थे, उन्हीं के पुत्र ऋषभदेव हुए, जिन्होंने अहिंसा और अनेकान्तवाद आदि का प्रवर्तन किया।..... 'भरत', ऋषभदेव के ही पुत्र थे, जिनके नाम पर हमारे देश का नाम 'भारत' पड़ा।" अहिंसा, जैनधर्म का प्राण है। जैनधर्म की अहिंसा का मूल आधार समता है। समता से आत्मसाम्य की निर्मलदृष्टि प्राप्त होती है। विश्व में जितनी भी आत्माएँ हैं, उन सभी के प्रति समत्वदृष्टि रखना चाहिए क्योंकि जितनी भी आत्माएँ हैं, सभी जीव हैं; उन सभी में एक समान ज्ञान-दर्शन की ज्योति है, सभी के गुण-धर्म समान हैं, सभी को एक ही सदृश सुख-दुःख की अनुभूति होती है, सभी को जीने में आनन्द आता है और मरने में कष्ट होता है। कूकर, शूकर और गन्दगी में बिलबिलाते हुए कीड़ों में भी जिजीविषा है। उन सबकी भी यही इच्छा है कि हमें मृत्यु न आए और यही इच्छा स्वर्ग में रहने वाले देव और इन्द्र की भी है। 1. 2. इण्डियन फिलॉसफी, खण्ड-1 पृ. 287 संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 101
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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