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________________ तृतीय अध्याय जैनधर्म और अहिंसा जैनधर्म के अनुसार इस जगत् (सम्पूर्ण सृष्टि) को बनाने वाला निर्माता, उसकी रचना करने वाला कोई ईश्वर, ब्रह्मा, परमब्रह्म या अल्लाह नहीं है और न ही ऐसा कोई महाशक्तिशाली है जो इस जगत् का विनाश करने में समर्थ हो। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक जीव पूर्ण शुद्धता को प्राप्त कर परमात्मा बन सकता है। जगत् में अनादिकाल से जीव-अजीव पदार्थ हैं, जीवों में हिंसा जैसा विकार भी अनादि से ही है, अतः उस हिंसा से बचने के लिए अहिंसा एवं उसका उपदेश करने वाला अर्थात् इसे अपनी मूल धुरी मानने वाला सनातन जैनधर्म भी अनादिकाल से ही विद्यमान माना जाता है। जैनधर्म बहुत प्राचीन धर्म है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी जैनधर्म कम से कम उतना प्राचीन तो है ही जितना कि वैदिकधर्म। वेदों तथा इस विषयक अन्यान्य शास्त्रों में भी जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव तथा श्रमण संस्कृति विषयक अनेक प्रमाणों का उल्लेख बड़े ही सम्मान के साथ किया गया है। जैनधर्म के प्रवर्तक प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव माने जाते हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव के बाद हजारों-लाखों वर्षों के अन्तराल में तेईस तीर्थङ्कर और हुए, जिनमें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तेइसवें एवं तीर्थङ्कर महावीर चौबीसवें तीर्थङ्कर हुए। इन्हीं अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के उपदेशों के सङ्कलन को आगम, जिनागम या जैनागम कहा जाता है। जैनों के मूल आगम शास्त्र प्राकृतभाषा में हैं, जो उन दिनों जनसामान्य की मातृभाषा थी। बाद में जैनाचार्यों ने हजारों शास्त्र तथा टीका ग्रन्थों का प्रणयन संस्कृत भाषा में किया।
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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