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________________ निष्कर्ष 171 रक्षा के लिए शस्त्र उठाना धर्म है; अहिंसा है। आक्रमण तो हिंसा है प्रत्याक्रमण हिंसा नहीं है। इस अवधारणा से अहिंसा की जो मूल भावना है वह कमजोर कर दी जाती है। परिवार, समाज, धर्म या राष्ट्र की रक्षा के लिए लड़ना अपना नागरिक कर्तव्य माना जा सकता है; किन्तु उसे अहिंसा मानने का अर्थ है अहिंसक प्रतिकार की सम्भावना को नष्ट कर देना। हिंसा को हिंसा मानने पर ही अहिंसक प्रतिकार की बात सोची जा सकती है। प्रत्याक्रमण को अहिंसा प्रवृत्ति मान लेने पर अहिंसक प्रतिकार के सारे द्वार स्वतः बन्द हो जाते हैं। अपनी रक्षा के लिए युद्ध को अनिवार्य हिंसा मानने में कोई बुराई नहीं है। जैनधर्म में विरोधी हिंसा' हिंसा के चार भेदों में से एक है; न कि अहिंसा के भेदों में से। 'विरोधी हिंसा' गृहस्थ जीवन में मजबूरी वश होती ही है - यह स्वीकार किया गया है; किन्तु उसे हिंसा ही माना गया है। अहिंसा की सत्ता स्वतन्त्र है; वह किसी के अधीन नहीं युद्ध के माध्यम से हम दुश्मन को हरा तो सकते हैं किन्तु उसे जीत नहीं सकते। अहिंसा का सम्बन्ध हृदय परिवर्तन से है; इसके माध्यम से हम उसे जीत भी सकते हैं। विश्व शांति के लिए इस सम्भावना को जीवित रखना होगा। है। अहिंसकों की भूल अहिंसा पर आस्था रखने वाले कुछ लोगों में एक मानसिक दुर्बलता होती है। वे अपने हर कार्य को उचित ठहराना चाहते हैं। वह हिंसक या अल्पहिंसक कार्य भी करें तो उसे उचित ठहराने में अहिंसक कहने में उन्हें एक मानसिक तोष प्राप्त होता है अहिंसा पर मात्र आस्था होने या अहिंसक समाज में जन्म लेने मात्र से कोई पूर्ण अहिंसक नहीं हो जाता है। राग-द्वेष से रहित वीतरागी जो करे वह अहिंसा है यह तो एक बार माना भे जा सकता है, किन्तु अहिंसा पर मात्र विश्वास रखने वाला जो कुछ भी करे वह 'अहिंसा' है; यह नहीं माना जा सकता। हिंसा को अहिंसा कहकर या मानकर हम मानसिक सन्तुष्टि भले ही कर लें, सिद्धान्त की सुरक्षा नहीं कर सकते। 'अहिंसा' जैसे
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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