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________________ निष्कर्ष नि:सन्देह कोई भी उच्च मानवीय मूल्य किसी धर्म विशेष की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होता है। किन्तु, यदि कोई धर्म या समाज उस शाश्वत मूल्य के उपयोग में, संरक्षण-संवर्धन में या उसके अनुसन्धान में विशेष श्रम करता है, उसे सिर्फ जीवित ही नहीं बल्कि उसकी प्रयोगधर्मिता को भी बरकरार रखने में अपना विशेष योगदान देता है तो युग-युगान्तर तक सहज ही वह शाश्वत मूल्य उस धर्म की पहचान बन जाता है। जैनधर्म के सभी तीर्थंकरों तथा आचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसी भी सिद्धान्त का प्रयोग सिर्फ आत्मकल्याण के लिए ही नहीं किया प्रत्युत सृष्टि के समस्त प्राणियों के अभ्युदय एवं सुख-शान्तिमय जीवन के लिए उन मार्गों को आम कर दिया। इसीलिए भगवान महावीर ने इसी के अन्तर्गत 'सर्वोदय' की भावना का प्रसरण किया जहाँ मात्र मनुष्य की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीव जगत् के अभ्युदय का उद्देश्य निहित है। किसी भी धर्म में जब तक इतनी उदार दृष्टि न हो उसे धर्म कैसे मान लिया जाये। धर्म की दृष्टि उदार और विशाल होती है, सम्प्रदायवाद उस दृष्टि को संकुचित कर देता है और आरोप धर्म पर आ जाता है। अहिंसा जैसे शाश्वत उच्च मानवीय मूल्यों को प्रायः सभी धर्मों ने अपने-अपने मापदण्डों के अनुसार अपनाया। किन्तु; कुछ सम्प्रदायों ने अहिंसा की मूल भावना के अनुसार व्याख्या करने की बजाय अपनी पूर्व स्थापित मान्यताओं के साँचे में अहिंसा को ढालकर प्रस्तुत किया और फिर उसका जयघोष भी किया। उन्होंने अपने अपने अनुसार 1. सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव - युक्त्यनुशासनम्, श्लोक-61
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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