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________________ गाथा परम विजय की 'सांस तो ले रहा है?' 'सांस भी नहीं ले रहा है।' 'तो क्या मर गया?' 'यह आप जानें, हम क्या कहें?' अपना-अपना अलग चिंतन होता है। राजा क्या कहलवाना चाहता था, यह गांव वाले नहीं जानते। किंतु रोहक को ज्ञात था कि राजा क्या कर रहा है। चिन्तन का अपना अपना स्तर होता है। सबका चिन्तन समान नहीं होता। आकृति और प्रकृति भी समान नहीं होती। जम्बूकुमार एक व्यक्ति है किन्तु उसके संदर्भ में तीन तरह की बातें चल रही हैं। अनेक संभ्रांत परिवारों ने अपनी कन्या जम्बूकुमार को सौंपने का मन बना लिया। उन्होंने अपनी योजना बनानी भी शुरू कर दी। सोचा-हम ऋषभदत्त के पास कैसे जाएं और अपना प्रस्ताव रखें? माता-पिता योजना बना रहे हैं कि जम्बूकुमार के लिए कन्या को हम कैसे खोजें? जम्बूकुमार की अपनी योजना है, वह सोच रहा है-अब मुझे सत्य की खोज में लगना है, आत्मा की खोज में लगना है, आत्मा के निकट जाना है। मैंने यह समझ लिया है कि सत्य का सार कोई है तो वह आत्मा है। एक एव भगवानयमात्मा, ज्ञानदर्शनतरंगसरंगः। सर्वमन्यदुपकल्पितमेतद्, व्याकुलीकरणमेव ममत्वम्।। एक आत्मा ही अपनी है-इस सचाई को भूलना नहीं है। शेष सारा व्यवहार है। सारे संबंध क्षणिक हैं, स्थापित किये गये हैं, जोड़े गये हैं। जो जुड़ता है, वह टूट भी जाता है। जो नहीं जुड़ता, वह अनादि होता है। अनादि कभी जुड़ता नहीं है किंतु जो सादि होता है, आदि सहित होता है, वह जुड़ता है टूट जाता है। मिलता है बिखर जाता है। इसीलिए अनेक संतों, विद्वानों ने कहा-नदी नाव संयोग-नदी नाव का योग है। नदी के तट पर नौका आती थी तब सैकड़ों लोग मिलते थे। आज नदी नाव के स्थान पर रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डा है। लोग वहां मिलते हैं और वापस चले जाते हैं। यह दुनिया संबंधों की दुनिया है किंतु सचाई यह है-आत्मा अकेली है, अकेला आया है अकेला जाना है। यह वास्तविकता है। यह आत्मा एक महासमुद्र है और इसमें तरंगें भी हैं। ज्ञान-दर्शन की तरंग, अपनी चेतना का उपयोग-ये उर्मियां हैं जो उठती रहती हैं। शेष सब उपकल्पित हैं। हमने उन्हें अपना मान रखा है, वस्तुतः वे सब अपने नहीं हैं। ___वस्तु या व्यक्ति के साथ एक कल्पना कर ली और ममकार को जोड़ दिया। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का, एक व्यक्ति से वस्तु का जो संबंध होता है उसका धागा है ममत्व। चेतना में से एक तरंग निकलती है-'यह मेरा है।' यह ममत्व का धागा निकला, उसको बांध दिया फिर यह मति बन जाती है मेरा शरीर, मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा धर्म, मेरा समाज, मेरा राष्ट्र-आगे से आगे बढ़ते चलो, चलते चलो। यह ममत्व विस्तार देता है। वस्तुतः मेरा कितना है? आत्मा तो अकेली है। ममत्व उसको बहुरूप बना देता है। नाना रूप हो जाते हैं। यह संबंधों का विस्तार ममत्व के कारण होता है।
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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