SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा परम विजय की हूं-रत्नचूल बंदी न रहे, शत्रु न रहे, अच्छा मित्र बने।' यह कहते हुए जम्बूकुमार आगे बढ़ा, उसने रत्नचूल के बंधन खोल दिए। जम्बूकुमार ने कहा-'विद्याधरपति रत्नचूल! आप बहुत शक्तिशाली हैं। बहुत विद्याएं आपके पास हैं। यह तो कुछ घटना घटित होनी थी, हो गया। आप यह न मानें कि आप पराजित हो गये। हार-जीत तो भाग्य और अवसर की बात है। किन्तु इस प्रसंग में आपके पौरुष और विद्या कौशल का साक्षात्कार हुआ।' अपि च कोमलालापैः, सूक्तिसंदर्भगर्भितैः। खगं संतोषयामास, कुमारो मारगौरवः।। __ हीनभावना को मिटाये बिना वैर मिटता नहीं है। किसी भी व्यक्ति में हीनभावना भरो, वह आधा मर जायेगा और आधा प्रतिकार करने में लग जायेगा। उसके मन की आग बुझती नहीं है, ज्वाला प्रज्वलित रहती है। जम्बूकुमार कुशल था। उसने हीनभावना को दूर किया और कहा-'आपने बड़ा काम किया है। जो कुछ हुआ वह हो गया। अब आप चिंता न करें। मेरा एक प्रस्ताव है, अगर आप स्वीकार करें।' रत्नचूल ने सारी बात सुनी, वह प्रसन्न हो गया। हर आदमी अपनी श्लाघा से प्रसन्न होता है। इससे हीनभावना भी दूर होती है। रत्नचूल बोला-'कुमार! मैं आपके प्रस्ताव को स्वीकार करूंगा।' जम्बूकुमार ने कहा-'जय और पराजय तो युद्ध में होती रहती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शक्तिशाली हार जाता है और कमजोर जीत जाता है। पासा कैसे पलटता है और कैसे पड़ता है, कहा नहीं जा सकता इसलिए आप कोई चिंता न करें, मन में विषाद न करें। आप प्रसन्न रहें।' जयपराजयौ स्यातां, कुर्वतो युद्धमाहवे। विषादं खग! मा कार्षीः, धर्मः पुंसो निसर्गतः।। रत्नचूल के मन में थोड़ा संतोष उभरा, प्रसन्नता भी बढ़ी। जब अनुकूल वचन मिलता है, अनुकूल पवन मिलता है, बादल गहरा जाते हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। बादल झुक गये, घटाएं गहरा गयीं, चेहरा भी खिल उठा। ___ जम्बूकुमार ने भावपूर्ण स्वर में कहा-'जहां वैर-विरोध का वातावरण होता है, वहां न शांति रहती है, न विकास होता है। आप शांति और विकास चाहते हैं इसलिए आप और मृगांक में जो यह विरोध है, वह समाप्त हो जाना चाहिए। यह मेरा प्रस्ताव है।' विद्याधर रत्नचूल ने इस बात का समर्थन किया-'कुमार! आपकी भावना उत्तम है। जम्बूकुमार-'मैं चाहता हूं-मेरी यह भावना सफल बने।' रत्नचूल बोला-'आपके किसी भी उपयुक्त प्रस्ताव को हम स्वीकार करेंगे।' मृगांक ने भी सहमति के स्वर में कहा-'आपकी भावना की सफलता हमारा सौभाग्य होगा।'
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy