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________________ गाथा विजय की हम अर्हत् को नमस्कार करते हैं और इसलिए करते हैं कि वे वीतराग हैं। दुनिया के सब मनुष्यों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-सराग और वीतराग। वीतराग हो गया, नमस्कार चरितार्थ हो गया। सराग वीतराग को नमस्कार करता है। हजारों-हजारों वर्षों का इतिहास साक्षी है कि त्याग के सामने भोग झुकता रहा है, वीतराग के सामने राग नीचे बैठता रहा है। हमारी आत्मा की मूल शक्ति है वीतरागता और त्याग। यह आत्मा का स्वभाव है। राग, भोग, असंयम ये सारे द्वंद्व, संघर्ष, लड़ाई-झगड़े के मूल हैं। आज तक दो वीतराग कभी नहीं लड़े। सरागी दो मिलते हैं और नहीं लड़ते हैं यह बड़ा कठिन है। साथ में रहना शुरू करते हैं और कुछ ही दिनों में लड़ाई शुरू हो जाती है। कुछ तो पहले दिन ही लड़ना शुरू कर देते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता है लड़ाई बढ़ती चली जाती है। यह प्रकृति है-जहां-जहां व्यक्ति आत्मा के मूल स्वभाव से दूर होता है वहां लड़ाई-झगड़ा स्वाभाविक बन जाता है। जब-जब हम अपनी आत्मा के स्वभाव में रहते हैं कोई लड़ाई नहीं, कोई झगड़ा नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कुछ भी नहीं होता। जहां विषमता है वहां संकल्प-विकल्प पैदा होगा। संकल्पविकल्प पैदा होगा तो संशय होगा, झगड़ा शुरू हो जायेगा। उत्तराध्ययन सूत्र में बहुत सुन्दर बात कही गई है-एवं ससंकप्प-विकप्पणासो, संजायए समयमुवट्टियस्स। विषमता में संकल्प-विकल्प पैदा होता है। पिता ने पांती की और विषमता रख दी। एक पुत्र को ज्यादा दे दिया और एक को कम। संकल्प-विकल्प शुरू हुआ और लड़ाई की नींव पड़ गई। जहां भी विषमता है वहां लड़ाई अनिवार्य बन जाती है। जहां समता आ गई, वहां संकल्प-विकल्प का नाश हो जाता है, संकल्प-विकल्प कोई रहता ही नहीं। कोई आवश्यकता ही नहीं होती। एक व्यक्ति ने पूछा-दो आदमी मिलते हैं, बातचीत शुरू हो जाती है। यह बातचीत क्यों होती है?' समता नहीं है इसलिए बातचीत होती है। मन में विषमता है, संकल्प-विकल्प है इसलिए बातचीत शुरू हो जाती है। समता में रहने वाले दो आदमी मिलें, बैठें तो बातचीत नहीं होती। ५६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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