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________________ RELESSMORZARTZAPENTIN Openin • दूसरों को जीतना विजय और अपनी आत्मा को जीतना परम विजय - इस रहस्यपूर्ण वक्तव्य को समझने का अर्थ है-जीवन के परम लक्ष्य को समझना । वह विजय, जहां व्यक्ति दूसरों को जीतता है, केवल विजय नहीं है। वहां विजय और हार दोनों स्थितियां हैं। दो व्यक्तियों के संघर्ष में एक व्यक्ति जीतता है और एक हारता है। दूसरे व्यक्ति की हार की निष्पत्ति है -विजय | वह विजय, जहां व्यक्ति स्वयं को जीतता है, केवल विजय है। वह किसी संहार और हार की निष्पति नहीं है । इसीलिए आत्म-विजय परम विजय है। • पर-विजय में जीतने वाला उत्फुल्ल होता है, जश्न मनाता है, हारने वाला निराश और मायूस होता है। आत्म-विजय में विजेता प्रसन्न होता है, उसकी विजय मानव-जाति को शुभ सुकून देती है, उसमें मानव-मन में व्याप्त निराशा को दूर करने वाली आशा - किरण का साक्षात्कार होता है। • जहां पर-विजय है वहां उत्कर्ष और अपकर्ष का मनोभाव प्रबल होता है। जहां पर विजय है वहां अहं और हीनता की ग्रंथि को पोषण मिलता है। जहां पर-विजय है वहां ईर्ष्या, प्रतिशोध और वैरानुबंध की भट्ठी जलती रहती है। जहां आत्म विजय है वहां स्वयं का परम उत्कर्ष है पर अपकर्ष किसी का नहीं है। जहां आत्म विजय है, वहां स्वयं की अनंत शक्ति का प्रस्फोट है, हीनता और अहं से परे एक अक्षय-शक्ति का समुद्भव है। जहां आत्म विजय है वहां आनंद का अजस्र स्रोत है। ईर्ष्या, प्रतिशोध और वैरानुबंध की चिनगारी उस निर्मल जल में उत्पन्न ही नहीं हो सकती । • हम विजय और परम विजय के इस अंतर को समझें, अनुचिंतन और अनुशीलन करें क्या हम उस विजय में व्यामूढ़ बनें, जिसके पीछे हार छिपी है? क्या हम उस विजय में उन्मत्त बनें, जिसमें विनाश के मंत्र भी छिपे हैं? क्या उस विजय को मूल्य दें, जिसमें हजारों-लाखों लोगों के जीवन की बाती बुझ जाती है? क्या वह विजय काम्य हो सकती है, जो इतिहास के भाल पर क्रूरता का जीवन्त शिलालेख अंकित कर दे ? क्या वह विजय कभी चिरस्थायी हो सकती है, जिसके साथ शत्रुओं की एक विशाल पंक्ति भी खड़ी हो जाए? क्या हम उस विजय को महत्त्व दें, जो मदांध, सत्तांध कामांध बनने की उर्वरा भूमि बन जाए? वह कैसी विजय है, जो अहंकार का संवर्धन करे, करुणा और संवेदनशीलता का रस सोख ले? क्या हम पर विजय से जुड़े इन प्रश्नों की उपेक्षा कर सकते हैं? • • परम श्रद्धेय आचार्यश्री महाप्रज्ञ का प्रस्तुत सृजन 'गाथा परम विजय की' एक उदात्त चरित्र का हृदयस्पर्शी विश्लेषण है, जो विजय और परम-विजय के मध्य एक सूक्ष्म किन्तु स्पष्ट रेखा खींचता है। उससे आत्म विजय के कुछ नए अर्थ फलित होते हैं आत्म विजय का एक अर्थ है-कषाय विजय । आत्म विजय का एक अर्थ है - इन्द्रिय और मन के दासत्व से मुक्ति | आत्म विजय का एक अर्थ है–समता और आत्मतुला की चेतना का जागरण । आत्म विजय का एक अर्थ है-चेतना के निरावृत स्वरूप का साक्षात्कार। आत्म विजय का एक अर्थ है—पदार्थ निरपेक्ष सुख और शांति की अनुभूति । • प्रस्तुत ग्रंथ में वर्तमान ऐतिहासिक युग के अंतिम केवली जंबू स्वामी के यशस्वी जीवन का रोचक शैली में रोमांचक चित्रण है, जिसका अथ होता है पर विजय से और इति होती है आत्म-विजय में। पर विजय से परम - विजय की इस अलौकिक यात्रा में अनेक घुमावदार मोड़ हैं, विलक्षण आरोह और अवरोह हैं, जो औपन्यासिक रसात्मकता के साथ जीवन-स्पर्शी उद्बोध और संबोध देने में समर्थ हैं। हस्ति-विजय, विद्याधर-विजय, ब्रह्मचर्य का संकल्प और विवाह प्रस्ताव की स्वीकृति । आठ अप्सरा-तुल्य श्रेष्ठी कन्याओं से पाणिग्रहण। सुहागरात में वैराग्य का संगीत । एक ही रात में आठ भोगानुरक्त कन्याओं का चित्त विरक्त। पांच सौ अट्ठाईस व्यक्तियों, जिनमें पांच सौ दुर्गांत चोर, के केवल एक अंधियारी रात में हृदय-परिवर्तन का इतिहास - विरल प्रसंग | आचार्य सुधर्मा से दीक्षा ग्रहण और कैवल्य की उपलब्धि–इतना सा कथा - सूत्र विशद विवेचना के साथ बृहद्काय ग्रंथ 'गाथा परम विजय की' में रूपायित है। • आचार्यश्री महाप्रज्ञ कुशल वाग्मी और प्रवचनकार थे। प्रस्तुत कृति सन् १६६६ में उनके द्वारा प्रदत्त ५६ प्रवचनों की निष्पत्ति है। प्रवचन के आधारभूत ग्रंथ रहे–१. पंडित राजमल विरचित जंबूस्वामिचरितम', २. आचार्य भिक्षु रचित जंबू चरित्र ।' १. प्रकाशक- माणिकचंद दिगंबर जैन ग्रंथमाला समिति, मुंबई २. प्रकाशक - जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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