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________________ संपादकीय • विजय मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा है। • उसे विजय प्रिय है, पराजय प्रिय नहीं है। वह विजयश्री का वरण करना चाहता है, पराजय का दंश झेलना नहीं चाहता। • वह विजय के लिए क्या-क्या नहीं करता। संघर्ष करता है, युद्ध करता है, मनोबल और शौर्य-वीर्य का प्रदर्शन करता है। • कहा गया-जुद्धारिहं खलु दुल्लहं-युद्ध का क्षण दुर्लभ है। इस दुर्लभ क्षण का उपयोग करो और विजय की ऋचाएं लिखो। • जब मनुष्य की जुझारू वृत्ति विजय के स्वस्तिक रचती है तब उसका आनन/अंतःकरण प्रमुदित, प्रफुलित और विकस्वर हो जाता है। ऐसा लगता है, जैसे दुनिया की सारी खुशियां उसकी चादर में समा गई हैं। जब वह विजय के द्वार पर दस्तक देने में सफल नहीं होता तब स्वयं को निष्प्रभ और निस्तेज अनुभव करता है। ऐसा लगता है, जैसे खुशियों से भरे सदाबहार मुख-चंद्र को किसी राहु ने ग्रस लिया है। • प्रश्न होता है क्या विजय का मंत्र दुर्लभ है? विजय का मंत्र दुर्लभ नहीं है। दुर्लभ है विजय के मंत्र की आराधना। यदि विजय के मंत्र की निष्ठा और तन्मयता के साथ, शुभ अध्यवसाय और संकल्पपूर्वक आराधना करें तो पग-पग पर विजय का साक्षात्कार हो सकता है। . विजय के मंत्र की आराधना से पूर्व लक्ष्य का निर्धारण जरूरी है-हम विजय किस पर प्राप्त करें? हमारा शत्रु कौन है? क्या हमारा शत्रु कोई व्यक्ति है? कोई वस्तु या परिस्थिति है? • अध्यात्म की भूमिका पर भगवान महावीर ने कहा-व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु-अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पद्वियसुपढिओ। अपनी दुष्प्रवृत्त आत्मा शत्रु है और सुप्रवृत्त आत्मा मित्र। दूसरों में शत्रुता का आरोपण उचित नहीं है। व्यवहार के क्षेत्र में शत्रु प्रतीत होता है दूसरा व्यक्ति। वस्तु सत्य यह है-शत्रु दूसरा व्यक्ति नहीं है, अपनी ही आत्मा है। इसीलिए अध्यात्मविदों का निर्देश सूत्र रहा-अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझेण बज्झओ-तुम अपने आपसे लड़ो, बाहरी शत्रुओं से लड़ने से क्या होगा? उन्होंने इस तथ्य को इस प्राणवान् शब्दावली में प्रतिष्ठापित किया एक व्यक्ति दुर्जय संग्राम में लाखों व्यक्तियों को जीतता है और एक व्यक्ति अपनी आत्मा को जीतता है। इन दोनों में परम विजय है अपनी आत्मा पर विजय। जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।।
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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