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________________ गाथा परम विजय की समुद्रश्री, जो सबसे बड़ी थी, बोली- मां ! कल तक तो वही हम सोचते थे जो आप कह रही हैं। यह आत्मा आत्मा कुछ नहीं है, सब झूठी बातें हैं। पर प्रियतम में ऐसा कोई चमत्कार है कि एक रात में ही हमें आत्मा का दर्शन करा दिया। हमें आत्मा का दर्शन हो गया।' क्या इतनी जल्दी चेतना का परिवर्तन हो सकता है? हमारी चेतना के अनेक स्तर हैं-ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल की चेतना । किसी एक चेतना पर ध्यान अटक जाये तो एक परिवर्तन घटित होता है। सन् १६७६ की घटना है। हम लोग नोहर में थे। रात्रिकालीन प्रवचन में मैंने दर्शन केन्द्र की चर्चा की। मैंने कहा - 'दर्शन केन्द्र वह स्थान है, जहां आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।' प्रवचन संपन्न हो गया। जैन, जैनेतर हजारों लोग थे। दूसरे दिन दोपहर को हम साध्वियों के प्रवास स्थल से लौट रहे थे। अग्रवाल समाज की पांच-सात महिलाएं, जो कीर्तन-भजन में ज्यादा रस लेती हैं, सड़क पर खड़ी हो गईं और बोलीं- 'महाराज ! ठहरो, दो मिनिट ठहरो ।' हम ठहर गये। वे बोलीं- 'महाराज ! रात आपने बताया कि यहां मस्तक पर ध्यान करने पर आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है। महाराज ! हमें और कुछ नहीं चाहिए, हमें तो आप सांवरिये का साक्षात्कार करा दीजिए।' यह कहते-कहते वे जैसे रोने लग गईं। उनकी भावना इतनी प्रबल थी कि एक उत्सुकता जाग गई और गद्गद हो गई, आंखों में आंसू आ गये। वे बोलीं- 'महाराज ! हमें तो अब सांवरिये का दर्शन ही करा दो। ' चेतना बदलती है, चेतना का रूपान्तरण होता है। एक शब्द ऐसा काम करता है कि आदमी की चेतना बदल जाती है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का प्रसंग विश्रुत है । वे मुनि बन गए। ध्यान साधना में लीन थे। सम्राट श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे। अग्रिम पंक्ति में चल रहे एक व्यक्ति ने उन्हें संबोधित कर कहा—‘पाखंडी कहीं का! आकर ध्यान में खड़ा हो गया। वहां राज्य पर शत्रुओं का आक्रमण हो रहा है।' प्रसन्नचन्द्र राजर्षि वृक्ष के नीचे ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। अब ध्यान में खड़े-खड़े संग्राम में लड़ने लग गये और मारने लग गये। यह शब्द का ही तो चमत्कार था। काफी देर तक युद्ध किया । श्रेणिक की सेना के पीछे-पीछे सुमुख चल रहा था। वह बोला-'राजर्षि ! धन्य हैं आप ! आपने राज्य छोड़ा है। मुनि बने हैं।' जैसे ही राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ने सुना, सोचा-'अरे! मैं कहां चला गया। मैं तो अब साधु बन गया हूं। मैंने राज्य छोड़ दिया। किसका राज्य, किसका बेटा, किसका युद्ध । वे तत्काल संभले।' जब वे ध्यान में युद्ध कर रहे थे, संक्लिष्ट परिणाम धारा थी। उस समय महावीर ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा—अगर राजर्षि अभी मरे तो सातवें नरक में जा सकता है। संभलते ही स्थिति ऐसी बनी की कि महावीर बोले- प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान हो गया है। चेतना का आरोहण-अवरोहण - दोनों होता है। चेतना कहां जाती है, हमारा चित्त कहां जाता है, उस पर बहुत कुछ निर्भर है। जब कोई निमित्त मिलता है, चेतना बदल जाती है। आठों कन्याओं की चेतना का रूपान्तरण हो गया। परिवर्तन नहीं, रूपान्तरण । एक रूप ही दूसरा बन गया। नया जन्म और नया अवतार हो गया। वे बोलीं- मां! आप हमारी चिंता न करें। जम्बूकुमार ने हमें ऐसा सत्य दिया है, ऐसा रत्न दिया है कि अब इन बहुमूल्य रत्नों की हमें कोई अपेक्षा नहीं है।' ३६५
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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