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________________ ५)(ह 尽 गाथा परम विजय की 'मां! योगाभ्यास मेरे पिता हैं। विषय विरति मेरी मां हैं। विवेक मेरा सहोदर है। अनासक्ति मेरी बहिन है। शांति मेरी प्रिया है। विनय मेरा पुत्र है। उपकार मेरा मित्र है। वैराग्य मेरा सहायक है । उपशम मेरा घर है।' 'मां! मुझे ये सब प्राप्त हैं इसलिए अकेला होते हुए भी अकेला नहीं हूं। मां ! जिनको ये सब प्राप्त हो जाते हैं, वह सदा सुखी रहता है, कभी दुःखी नहीं बनता। ' 'जंबू! तुमने तो अपने सुख के साधन ढूंढ़ लिए पर तुम मुझे यह बताओ तुम्हारे पीछे जो ये आठ खड़ी हैं उनका क्या होगा? क्या तुम्हें इनकी कोई चिंता नहीं है ?' गृहस्थ जीवन में एक के बाद एक चिंता उभरती चली जाती है। पहली चिन्ता यह थी - तुम एक बार शादी कर लो तो यह घर-आंगन कुंआरा नहीं रहेगा। फिर तुम दीक्षा ले लेना। अब नई समस्या पैदा हो गई। समस्या का अंत कभी इस दुनिया में हो नहीं सकता। यह एक ध्रुव सत्य है। कोई आदमी यह सोचता है कि सारी समस्याएं सुलझ गईं तो यह भ्रांति है चिंतन की। केवल एक ही स्थान है, जहां समस्या सुलझती है। वह स्थान है—'आत्मावलोकन', 'आत्मप्रेक्षा', अपने आपको देखना। अपने आपको देखना शुरू करें, कोई समस्या नहीं है। बाहरी जगत् में हमारी चेतना आये तो ढेर सारी समस्या पैदा होती है। मां ने एक नई समस्या खड़ी कर दी - 'बेटा! मुझे बताओ, इनका क्या होगा। एक पंक्ति खड़ी है पूरी तुम्हारे पीछे। ये कैसे अपना दिन बितायेंगी ? तुम तो साधु बन जाओगे और ये पीछे रहेंगी। अब मैं इनको कैसे रखूंगी? कैसे समझाऊंगी? कैसे इनके दुःख को मिटाऊंगी? ये रोती - कलपती रहेंगी ? मुझे दया आयेगी। मेरी क्या दशा होगी ? तू साधु बन रहा है अहिंसा के लिए। क्या यह हिंसा नहीं है?' जम्बूकुमार ने कहा- 'मां! तुम यह प्रश्न मुझसे क्यों पूछती हो ? यह प्रश्न तुम अपनी बहुओं से पूछो। क्या कहती हैं और उनकी क्या मानसिकता है? वे तुम्हारे सामने खड़ी हैं। तुम्हारी जिज्ञासा और व्यथा 'का उपशमन वे स्वयं करेंगी।' ३६३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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