SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा परम विजय की 'भाइयो! तुम दिन में नहीं आते। रात में छिप कर आते हो। छिप कर चोरी करते हो। तुम इस प्रकार यह निंदनीय कर्म करते हो कि किसी को पता न चले। यदि जनता और प्रशासन को पता चल जाए तो क्या तुम चोरी कर सकते हो?' 'नहीं कर सकते।' एक नट बड़ा कुशल था। उसका कौशल ऐसा था कि भीत पर एकदम सीधा चढ़ जाता। वह रज्जु पर इस प्रकार चढ़ता कि सब स्तब्ध रह जाते। एक दिन उसका नाटक देखने कुछ चोर भी आ गये। उन्होंने सोचा यह नट चोर बन जाए, हमारा साथी बन जाए तो फिर सेंध लगाने की जरूरत नहीं रहे। हम इसे सीधा भीत पर चढ़ा देंगे, बड़ा अच्छा हो जायेगा। उससे बातचीत की, धन का प्रलोभन दिया। जहां धन का प्रलोभन आता है वहां नट ही नहीं, बड़े-बड़े सुभट भी पिघल जाते हैं, बड़े-बड़े सत्ताधीश और उच्च आसन पर बैठने वाले लोगों का मन भी पिघल जाता है। नट का मन पिघल गया। वह चोरों की मंडली में शामिल हो गया। एक दिन रात को चोर चोरी करने गए। उन्होंने एक बहुत बड़े सेठ का मकान चुना। उसकी भीत बहुत ऊंची थी। उन्होंने सोचा-हम सीधे तो जा नहीं सकते। उन्होंने नट साथी से कहा-'भैया! तुम ऊपर चढ़ो, भीतर जाओ और दरवाजा खोलो। फिर हम भीतर घुस जाएंगे।' नट बोला-'मैं तो नहीं चढ़ सकता।' 'अरे! तुम तो इतनी बड़ी भीत चढ़ जाते थे।' 'भाई! बिना नगाड़ा बजाए मैं चढ़ नहीं सकता। जब नगाड़े बजते हैं तब नट का पैर उठता है, नट करतब दिखाता है। तुम नगाड़ा बजाओ, मैं ऊपर चढ़ जाऊंगा।' क्या चोर कभी नगाड़ा बजाएगा? जहां माया है, कपट, छिपाव है वहां नगाड़ा कैसे बजेगा? न तो नगाड़ा बजा और न वह नट भीत पर चढ़ सका। ‘भाइयो! चोर को कितनी माया करनी पड़ती है, कितना झूठ बोलना पड़ता है। चोरी करने वाला इनसे बच नहीं पाता। केवल चोर ही नहीं, कोई साहूकार भी कर की चोरी करे तो उसे भी झूठ बोलना पड़ेगा।' __ ये एक नंबर और दो नंबर के खाते क्यों रखे जाते हैं? इसलिए कि धन को छिपाना चाहते हैं, आयकर से बचना चाहते हैं। इसलिए छिपाना भी पड़ेगा और झूठ भी बोलना पड़ेगा। मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा-माया मृषा बढ़ती है। कुछ मिलता है तो लोभ भी बढ़ जाता है। जहा लाहो तहा लोहो-जैसे-जैसे लाभ होता है, लोभ बढ़ता चला जाता है। तत्था वि दुक्खा न विमुच्चइ से यह दुःख की श्रृंखला समाप्त नहीं होती। दुःख आगे से आगे बढ़ता चला जाता है। कपट करने में, मायाजाल रचने में बड़ी कठिनाई है। इतना कुछ करने पर भी यह दुःख बराबर बना रहता है कि मैंने जितना चाहा, उतना नहीं मिला। यह चिन्तन तनाव उत्पन्न कर देता है। 'भाइयो! सोचो–जो अपने पास है, क्या आदमी उससे सुखी बनता है? या जो नहीं है उससे दुःखी बनता है?' ३४६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy