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________________ बड़ा जटिल है मृत्यु के रहस्य को समझना और समझाना। 'प्रभव! मैंने इनको मृत्यु का रहस्य समझा दिया और साथ-साथ जीवन का रहस्य भी समझा दिया।' conom 'प्रभव! मैंने कविता की इस भाषा में यह रहस्य नहीं समझाया सुख-दुःख क्या है मनोभावना, जिसने जैसा कर माना। मधुकर ने अपने मरने को था अनंत सुखमय जाना। मैंने यथार्थ की भाषा में महावीर वाणी के द्वारा समझाया।' 'प्रभव! महावीर ने कहा है-जे निज्जिण्णे से सुहे-जितना-जितना आत्मशोधन, जितनी-जितनी निर्जरा, वह है सुख और शेष सारा है दुःख।' 'प्रभव! लोग कहते हैं-खाने में बड़ा सुख मिलता है। वस्तुतः व्यक्ति खाता क्यों है? भूख क्या है? जठराग्निजा पीड़ा भूख का अर्थ है जठराग्नि से उत्पन्न होने वाली पीड़ा। जब वह पीड़ा पैदा होती है, आज की बोलचाल की भाषा में जब पेट में चूहे कुलबुलाते हैं, चूहे लड़ने लग जाते हैं। वह जठराग्नि की वेदना है, कष्ट है उसको शांत करने का उपाय है भोजन। भूख लगे तो भोजन कर लो, जिससे वह पीड़ा एक बार शांत हो जाए। वह भी पूर्णतः शांत नहीं होती। एक बार भोजन किया, भूख शांत हुई और उसी क्षण से फिर भूख लगनी शुरू हो गई। २-४ घंटा बीतते हैं, फिर भूख लग जाती है। आयुर्वेद के आचार्यों ने कहा-एक बार भोजन करने के बाद साढ़े तीन घंटा तक कुछ भी नहीं खाना चाहिए। जब तक पच न जाए, खाया न जाए। भोजन पचा, नीचे उतरा फिर जठराग्नि की पीड़ा शुरू हो गई। यह पीड़ा शांत कहां होती है? गाथा परम विजय की 'प्रभव! मैंने यह रहस्य भी समझाया कि काम की अग्नि काम के सेवन से कभी तृप्त नहीं होती।' राजा ययाति की कथा विश्रुत है। राजा ययाति बूढ़ा होने लगा पर काम वासना शांत नहीं हुई। उसने देव से याचना की। उसे वर मिल गया कि तुम दूसरों की जवानी ले सकते हो। उसने पुत्रों को बुलाया, बुलाकर कहा-'तुम्हारा यौवन मुझे दे दो, जवानी मुझे दे दो।' सभी बड़े पुत्रों ने इंकार कर दिया। छोटा पुत्र था पुरु। उसने सोचा-पिताजी की इच्छा पूर्ति में सहयोगी बनना चाहिए। उसने कहा-'मेरा यौवन आप ले लें।' यौवन ले लिया। ययाति युवा बन गया और पुरु, जो युवा था, बूढ़ा बन गया। अब ययाति युवा बनकर भोग भोग रहा है। हजार वर्ष तक भोगों का आसेवन किया तो भी कामाग्नि शांत नहीं हुई। आखिर ययाति ने पुत्रों को इकट्ठा किया और अपनी अनुभव की वाणी में पुत्रों से कहा न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव, भूयो एवाभिवर्धते।। ययाति ने कहा-'यह जो मेरा यौवन कुछ बचा है, मैं पुत्र पुरु को वापस कर रहा हूं। यह इसके कुछ काम आयेगा। मैं अब इसको छोड़कर जंगल में जाना चाहता हूं। अरण्य में साधना करना चाहता हूं। मैंने देख लिया कि काम का दाहज्वर काम के उपभोग से कभी शांत नहीं होता। अग्नि कभी ईंधन से शांत नहीं होती। अग्नि में ईंधन डालो और घी की आहुति दो, वह ज्यादा प्रज्वलित हो जायेगी। ऐसे ही काम-भोग से काम बढ़ता है, कभी घटता नहीं है।' ३४०
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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