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________________ 1 / M. - गाथा परम विजय की दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में बतलाया गया है कि हयरस्सि-घोड़े के लिए लगाम, गयंकुशहाथी के लिए अंकुश और पोयपड़ागा पोत के लिए पताका के समान हैं ये धर्म चिन्तन के स्थान। _ 'प्रभव! इनको जरा समझो। अंकुश लगेगा तो हाथी मदोन्मत्त नहीं होगा। लगाम हाथ में है तो घोड़ा उच्छंखल नहीं होगा। पताका ठीक चल रही है तो नौका डगमगाएगी नहीं। यह डंडा लगेगा तो बकरी चरेगी नहीं। अंकुश लगाते रहो, कामनाएं कम होती चली जाएंगी।' _ 'प्रभव! यह चिन्तन भी बना रहे ये काम-भोग तनाव पैदा करने वाले हैं। ये आर्तध्यान पैदा करते हैं। जैसे सटोरिये, सट्टा करने वाले, सट्टा जब करते हैं तो इस प्रकार कहते हैं इस बार इतना खाया, इतना लगाया। उनकी भाषा भी ऐसी ही है। एक बार सट्टा कर लेते हैं पर चौबीस घण्टा दिमाग में उसका तनाव बना रहता है, उसका चिन्तन छूटता नहीं है। बार-बार वही बात दिमाग में आती है, बहुत लोगों को सपना भी वही आता होगा। शायद इसीलिए प्राचीन जैन आचार्यों ने ब्याज को महारंभ और कृषि को अल्पारंभ बताया। आचार्य जिनसेन ने लिखा-ब्याज का धंधा है महारंभ और खेती करना है अल्पारंभ। यह बात मुश्किल से समझ में आती है पर यह बात ठीक है कि उसमें आर्तध्यान बहुत रहता है। जहां आर्तध्यान ज्यादा है वह महारंभ बन जाता है। ___आर्तध्यान के अनेक लक्षण हैं। उनमें से एक लक्षण है-प्रिय का वियोग और अप्रिय चीज या व्यक्ति का संयोग। जब कोई प्रिय चला जाता है तब आर्तध्यान होता है। प्रिय की मृत्यु पर दो प्रकार की स्थितियां बनती हैं-या होता है आर्तध्यान या होता है वैराग्य। आर्तध्यान का भी यह बड़ा प्रसंग है। इतने दिन साथ रहे, अचानक सब कुछ चला गया। एक मिनट पहले साथ थे एक मिनट बाद कहां हैं-पता नहीं। धर्म की दृष्टि से देखें तो यह संसार का स्वरूप है। इतने दिन साथ रहे, साथ में खेले, कूदे, खाया-पीया, विनोद किया, सब कुछ किया और आज कहीं पता ही नहीं है। यह सचाई सामने आती है तो आदमी को मुड़ने का, जीवन को समझने का मौका मिलता है। इसलिए वैराग्य का भी बड़ा प्रसंग है। जो लोग इस प्रसंग में धर्म के संस्कार और वातावरण में आते हैं उन्हें आर्तध्यान से मुक्त होकर वैराग्य की ओर सोचना चाहिए। हम वैराग्य को बढ़ाएं तो जीवन बहुत अच्छा हो सकता है। इस आर्तध्यान पर धर्मध्यान के द्वारा नियंत्रण किया जा सकता है। ___ जम्बूकुमार उत्प्रेरक स्वर में बोला-'प्रभव! तुम तर्क की बात मत सोचो, अनुभव की वाणी सुनो। न जाने कितने आध्यात्मिक पुरुषों, तीर्थंकरों और गणधरों की यह अनुभव वाणी है-काम पर नियंत्रण हो सकता है। जब उस पर नियंत्रण हो गया तो उसका अंत भी हो सकता है, इसलिए प्रभव! तुम थोड़ा गहरे में जाकर चिंतन करो।' ____ जम्बूकुमार ने बहुत साफ बात बताई पर जब तक मोह का आवरण है, औदयिक भाव है, तब तक पूरी बात समझ में नहीं आती। जब तक क्षायोपशमिक चेतना नहीं जाग जाती, जब तक क्षायोपशमिक भाव प्रबल नहीं होता, उदय भाव की मलिनता दूर नहीं होती तब तक नकारात्मक प्रवृत्तियां कम नहीं होतीं। एक व्यक्ति चोरी करता है, नशा करता है। जब उसे यह कहा जाता है-चोरी करना बूरा है, नशा करना, लड़ाईझगड़ा करना बुरा है तब उसका तर्क यह होता है कि सारी दुनिया में ऐसा चलता है, सब कर रहे हैं, कितने लोग व्यसनी हैं, कितने लोग संघर्ष, कलह और अपराध कर रहे हैं। क्या बुरा मेरे लिए ही है? ३१३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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