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________________ } गाथा परम विजय की भो खगेन्द्र ! विमानेस्मिन्नात्मीये मां निवेशय । इतो नयस्व तत्राशु, यत्रास्ति रत्नचूलकः ॥ सम्राट् श्रेणिक का बहुत आग्रह रहा, सबका प्रोत्साहन मिला। माता-पिता को पूछने का अवसर ही नहीं मिला। जम्बूकुमार अकेला तैयार हो गया। कोई साथ नहीं फिर भी कोई चिन्ता नहीं, कोई भय नहीं । बहुत कठिन काम है। वीरकथाओं में वीरों की बहुत सारी कथाएं लिखी गई हैं। महाभारत से लेकर आज तक अनेक युद्ध हुए, उनमें हजारों वीरों के नाम हैं। उनकी सूची में जम्बूकुमार का कहीं नाम नहीं है किन्तु जम्बूकुमार ने जो साहस किया, वैसा साहस क्या कोई कर पाता है? सामने विद्याधरों की भयंकर सेना और उसके साथ लड़ने के लिए अकेला तैयार हो जाना - क्या कम आश्चर्यजनक है? इसका अर्थ है कि उसने महावीर के इस सिद्धांत को समझ लिया-णो जीवियाशंसा, मरणाशंसा–जीवन की आशंसा नहीं, मरने का भय नहीं। अपना कर्तव्य करना है। जीएं या न जीएं? मरें या न मरें ? कोई चिन्ता नहीं। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा। न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। जो धीर आदमी होता है, वह न्यायपथ से विचलित नहीं होता, चाहे आज मरण हो जाए या युगान्तर बाद। जम्बूकुमार उन विरल धीर व्यक्तियों की श्रेणी में थे। उन्होंने सोचा- जो कर्तव्यपथ है, उसे विचलित नहीं होना है। विद्याधर जिस आशा से आया है, उसके लिए जो करणीय है वह करना है । जाना है और लड़ना है। मन में इतना साहस, स्थाम, बल, पौरुष और पराक्रम । भगवान महावीर की पौरुष के शब्दों की एक सूची है- उत्थाणे इ वा, बले इ वा, वीरिए इ वा, पुरिसकार परक्कमे इ वा - जिसमें उत्थान है, बल है, वीर्य है, पुरुषकार और पराक्रम है, वह बड़ा काम कर सकता है। जिसमें ये सब नहीं, वह व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। सबसे बड़ी बात है उत्थान होना । आदमी उठता ही नहीं है। बैठ जाता है, सो जाता है, वह कभी बड़ा काम नहीं कर सकता। जम्बूकुमार में जो उत्थान था, वह अपूर्व था । कल्पना कर सकते हैं - अकेला युवक, वह भी निहत्था, हाथ में गेडिया भी नहीं। बूढ़ा आदमी हाथ में गेडिया तो रखता है। पास में कुछ भी नहीं। फिर भी कहीं भय की कोई रेखा नहीं। जम्बूकुमार ने कहा-'विद्याधरवर! मैं तैयार हूं।' विद्याधर ने सोचा–सम्राट् श्रेणिक का आग्रह है । इसका प्रबल मन है । मुझे कोई भार तो है नहीं । यह विमान में बैठ जाएगा। बोला-'जम्बूकुमार ! आओ, चलो।' विद्याधर व्योमगति की स्वीकृति से जम्बूकुमार के प्रस्थान का पथ प्रशस्त हो गया। स्वागत समारोह विदाई समारोह में परिणत हो गया । जम्बूकुमार ने सम्राट् श्रेणिक को प्रणाम किया। सभासदों का अभिवादन किया, सबसे प्रसन्न मन विदा ली। सबने साहस के पुतले के प्रति आश्चर्य के साथ मंगलभावनाएं कीं।
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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