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________________ गाथा परम विजय की बता रहा है कि तुम्हारे पास बहुत कुछ है इसीलिए मैं यह भीख मांग रहा हूं, झोली फैला रहा हूं कि तुम कृपा करो। मेरी दो विद्याएं चाहो तो आप सीख लो, पर यह स्तंभनी विद्या आप मुझे सिखा दें।' ___'कुमार! आप एक कृपा और करें। मेरे जो ५०० साथी खड़े हैं, खम्भे बने हुए हैं, जड़ जैसे बन गये हैं, उनको आप मुक्त करें।' जम्बूकुमार और आठों नववधुओं ने सारी बात सुनी। सबको बड़ा अचम्भा हुआ। प्रभव ने भावविह्वल स्वर में कहा-'कुमार! एक बार बाहर आकर देखो।' जम्बूकुमार और नव यौवनाएं दरवाजे के पास आईं, बाहर विशाल परिसर को देखा। एक विशालकाय सेना मूर्तिवत्, प्रस्तर या खंभे की तरह खड़ी है। हाथ भी नहीं जोड़ती, नमस्कार भी नहीं करती। जम्बूकुमार ने सोचा-यह क्या हो रहा है? यह कैसे हुआ? उसने प्रभव से कहा-'प्रभव! तुम भी बैठ जाओ, हम बात करेंगे। कुछ समय तुम हमारी बात सुनो।' __ विवश प्रभव बोला-'कुमार! जैसी आपकी इच्छा। अब कोई उपाय नहीं है मेरे पास। यदि प्रभात हो गया, सूरज उग गया, जनता को पता लग गया तो आरक्षक पुलिस आयेगी और इन सबको पकड़ लेगी, फांसी की सजा हो जाएगी। मेरे सारे साथी समाप्त हो जाएंगे। बड़ी समस्या है। आप जो कहें, वह करने के लिए तैयार हूं पर आपको ये दो अनुग्रह जरूर करने होंगे। मुझे स्तंभनी विद्या सिखानी है और मेरे साथियों को बंधन से मुक्त करना है।' प्रभव ने कातर स्वर में अनुरोध किया 'कुमार! आप अपनी माया को समेट लो।' जम्बूकुमार ने आश्वस्त करते हुए कहा-'ठीक है, पर पहले जरा बैठो।' उसने प्रभव को स्नेह से अपने पास बिठा लिया। ___ जम्बूकुमार ने अपनी नवपरिणीता वधुओं से बातचीत शुरू कर दी। जम्बूकुमार बोला-देखो बहनो! अब तो तुम मेरी पत्नी नहीं, बहन ही हो। अब तक मैं केवल वाचिक बात समझा रहा था। अब प्रायोगिक दृष्टान्त तुम्हारे सामने आ गया। बहनो! तुम बताओ कि ये चोर क्यों आये?' 'स्वामी! धन लेने के लिए आए हैं।' 'क्या चोरी करना अच्छा है?' 'अच्छा तो नहीं है।' 'फिर ये क्यों चोरी करते हैं?' सब एक स्वर में बोली-'अर्थमनर्थं भावय नित्यम्-स्वामी! यह अर्थ तो अनर्थ का मूल है। ये धन के लिए अनर्थ करने आये हैं।' ___ हम यह सोचें मनुष्य के जीवन के केन्द्र में क्या है? उसका सबसे ज्यादा आकर्षण किसमें है? मनुष्य को सबसे ज्यादा प्रिय कौन है? क्या मां प्रिय है? पिता प्रिय है? पत्नी प्रिय है? भाई-बहिन प्रिय हैं? कौन है प्रिय? हम गहराई में जाकर चिन्तन करें कि कौन प्रिय है? २४७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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