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________________ AAR 'स्वामी! क्या आपने मुद्गशैल की बात सुनी है?' 'प्रिये! मुद्गशैल के संदर्भ में तुम क्या कहना चाहती हो?' 'स्वामी! मुद्गशैल एक पत्थर होता है। एक बार पुष्करावर्त मेघ आया। कहा जाता है-पुष्करावर्त मेघ के एक बार बरसने के बाद दस हजार वर्ष तक वर्षा की आवश्यकता नहीं होती। भूमि इतनी स्निग्ध हो जाती है कि दस हजार वर्ष तक खेती करो, कोई पानी की जरूरत नहीं, सिंचाई की जरूरत नहीं।' आज तो पुष्करावर्त मेघ बरस जाए तो बांध, नहर आदि की कोई जरूरत ही न रहे। जब पुष्करावर्त मेघ आया तब वह मुद्गशैल पत्थर से बोला-'मुद्गलशैल! मैं बरसना चाहता हूं।' मुद्गशैल–'तुम कितना ही बरसो, मुझे क्या फर्क पड़ेगा?' पुष्करावर्त मेघ–'मैं तुम्हारे भीतर स्नेह पैदा करना चाहता हूं, अंकुर उगाना चाहता हूं।' मुद्गशैल–'यह मिथ्या गर्वोक्ति मत करो। मैं पत्थर हूं और पत्थर में भी मुद्गशैल हूं। मेरे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, कोई अंकुर नहीं फूट सकेगा।' मेघ अहंभरे स्वर में बोला-'मैं जब बरसूंगा तब सब कुछ हो जायेगा।' मुद्गशैल-'यह कभी संभव नहीं है।' मेघ ने बरसना शुरू किया, धारा संपात बरसता गया। जैसे-जैसे मेघ बरस रहा था वैसे वैसे पत्थर चमकने लग गया। वह सात दिन तक निरन्तर बरसता रहा, मुद्गशैल भी जहां का तहां रहा, न वह पानी के प्रवाह में बहा, न अंकुर फूटा किन्तु वह और अधिक मजबूत बन गया। आखिर पुष्करावर्त हार गया, बोला-'भाई! तुम पक्के हो। मैंने भूल की कि तुम्हें स्निग्ध बनाने का, अंकुरित करने का संकल्प किया।' ____ जयंतश्री भावविह्वल स्वर में बोली-'प्रियतम! हमने भी भूल की है। हमने सोचा था कि कहीं स्नेह का अंकुर फूट जायेगा पर आखिर आप मुद्गशैल पत्थर ही निकले, हमने आपको समझने में भूल कर दी। अब हम उस भूल को कैसे सुधारें?' ___ जम्बूकुमार बोला-'प्रिये! पुष्करावर्त मेघ को मैंने देख लिया है। तुम मुझे मुद्गशैल मानो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। क्या पत्थर होना कोई बुरी बात है? पृथ्वी का मूल आधार तो पत्थर ही है।' 'प्रिये! तुम्हारे शरीर में ये जो हड्डियां हैं, वे क्या हैं? वे पत्थर ही तो हैं। पार्थिव परमाणु होना कोई बुरी बात नहीं है। तुम मुद्गशैल मानो या और कुछ मानो पर सचाई यह है कि मैं अपने घर में चला गया हूं, मैं अपनी आत्मा में चला गया हूं इसलिए इन सब बातों का मुझ पर कोई असर नहीं हो रहा है।' ____ प्रिये! तुम मेरी बात भी अवधानपूर्वक सुनो। सच और झूठ के इस प्रश्न की निरर्थकता का अनुभव तुम्हें स्वतः हो जाएगा।' गाथा परम विजय की २७१
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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