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________________ आता, विश्राम करता और गहरी नींद में चला जाता। नींद में उसका मुंह खुल जाता। सिंचाना पक्षी वृक्ष पर बैठा यह देख लेता-बाघ नींद में है। उसका मुंह खुल गया है। वह नीचे उतरता और बाघ के मुंह में दांतों के आस-पास जो मांस लगा होता, उसे कुरेद-कुरेद कर खाने लग जाता । एक दिन, दो दिन ऐसा किया। कुछ पक्षी इकट्ठे हुए। उन्होंने समझाने का प्रयत्न किया- 'सिंचाना! तुम यह काम मत करो। इस कृत्य का परिणाम अच्छा नहीं होगा। तुम्हारा आलस्य और लोभ तुम्हारी मौत का कारण बनेगा। तुम बाघ के मुंह में जा रहे हो या मौत के मुंह में? क्या तुम्हें खाने को कुछ नहीं मिलता ? तुम ऐसा मत करो।' उसने कहा-‘यह बाघ तो नींद में सोया रहता है। इसे कुछ पता नहीं चलता और अनायास मुझे भोजन मिल जाता है।' वे हित चिन्तन करने वाले पक्षी थे, उन्होंने काफी समझाया बुझाया पर वह नहीं माना। वह लोलुप तो था ही, अहंकारी भी बन गया— 'बस मैं करता हूं वह ठीक है।' दूसरों की बात पर ध्यान नहीं दिया । 'स्वामी! एक दिन बाघ लेटा था, उसे नींद पूरी आई नहीं थी । वह अर्धनिद्रा में था, किन्तु उसका मुख खुला था। सिंचाना पक्षी नीचे उतरा । उतरकर खुले मुंह पर बैठा। बाघ के दांतों में फंसा मांस-खंड खाने लगा। बाघ को कुछ पीड़ा का अनुभव हुआ। वह जाग गया। उसने जैसे ही देखा कि सिंचाना पक्षी खा रहा है। वह आवेश में भर उठा। उसने उसे ऐसा दबोचा कि वह भीतर का भीतर ही रह गया।' कथा का उपसंहार करते हुए रूपश्री ने भावपूर्ण स्वर में कहा - 'स्वामी! मैंने कोई बड़ी कहानी नहीं सुनाई है। बहुत छोटी बात कही है पर आप देखें - इसका मर्म कितना बड़ा है ? जो दूसरों की सलाह नहीं मानता, अपने अहंकार में रहता है, आखिर उसकी गति वही होती है, जो सिंचाना पक्षी की हुई।' 'स्वामी! मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप सबसे पहले इस अहंकार को छोड़ दो - बस मैं सोचता हूं वही ठीक है, मैं करता हूं वही ठीक है। दुनिया में दूसरे भी अच्छा सोचने वाले हैं, दूसरे भी ठीक बात करने वाले हैं उनकी बात पर भी जरा ध्यान दो। आज हम आठ कन्याएं आपके सामने बैठी हैं, हम सब समझदार हैं, कुलीन हैं, सुशील हैं पर ऐसा लगता है कि आपकी दृष्टि में हमारी सलाह का कोई मूल्य नहीं है।' 'स्वामी! हम आपके अहित की बात नहीं सोच रही हैं। एकांत हित की बात सोच रही हैं पर यह अहंकार आड़े आ रहा है इसलिए हमारी बात आपके भीतर नहीं पैठ रही है। जब तक भीतर न जाए तब तक कुछ होता नहीं है। बात भीतर जानी चाहिए, गले के नीचे उतर जानी चाहिए। स्वामी! हम जो कह रही हैं, वह आपके गले नहीं उतर रही है और गले के नीचे उतरे बिना काम नहीं चलता।' 'स्वामी! आप मेरी बात ध्यान से सुनें। मैं एक कथा फिर सुना रही हूं।' 'प्रिये! मैं तुम्हारी बात तन्मयता से सुन रहा हूं।' 'स्वामी! एक चेला गुरु के पास आया, बोला- गुरुदेव ! आपकी सभा में कल पांच हजार आदमी थे। मैं दूसरी जगह गया वहां भी एक धर्मसभा थी। उसमें दस हजार आदमी थे। गुरुदेव! धर्म के प्रति कितना आकर्षण है, इतने लोग धर्म कर रहे हैं। भविष्य में स्वर्ग में भी आबादी बढ़ जाएगी, लोगों की इतनी भीड़ हो जायेगी कि आखिर समाएंगे कहां? मरने के बाद आप भी स्वर्ग जाएंगे, मैं भी स्वर्ग जाऊंगा। इतनी भीड़ में हम रहेंगे कहां? यह बड़ी चिंता की बात है।' २५४ गाथा परम विजय की m G
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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