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________________ असहाय भी बतला दिया और सहायता की बात भी शुरू कर दी। इस दुनिया में कोई भी आदमी सर्वथा असहाय नहीं होता। यह सापेक्ष बात है। कभी-कभी किसी को सहायता की जरूरत नहीं रहती। एक समय आता है, सहायता की अपेक्षा हो जाती है। एक व्यक्ति युवा है, जवानी है। ऐसा लगता है कि जैसे पहाड़ को भी लांघ जाए। बहुत कूदता-फांदता चलता है। उन्हीं लोगों को देखा, जब बुढ़ापा आया. एक पगथिया, एक सीढ़ी चढ़ना भी उनको पहाड़ चढ़ने जैसा लगने लगा। सब सापेक्ष होता है। कोई निरपेक्ष बात हमारे व्यवहार में नहीं होती। विद्याधर व्योमगति ने कहा-'महाराज! एक पर्वत और है। उस पर्वत का नाम है मलयाचल। उस पर्वत के पास एक नगर है केरल। चंदन के वृक्ष मलयाचल में होते हैं। मलय-चंदन। नाम ही है मलयज।' अस्त्यन्यतो गिरीशानो, नाम्ना वै मलयाचलः। अस्य दक्षिणदिग्भागे, केरला पूरिहाख्यया।। यह संभावना की जा सकती है-वर्तमान का केरल वही रहा हो। बहुत विशाल पर्वत है। ऊटी का पर्वत विशाल है। वहां और भी अनेक विशाल पर्वत हैं। व्योमगति ने कहा-'राजन्! उस पर्वतीय नगर का शासक है मृगांक। मृगांक की पत्नी मालती मेरी बहिन है। उसने एक कन्या को जन्म दिया। कन्या इतनी सुंदर कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कन्या बड़ी हई। पिता को चिन्ता रहती है कन्या के विवाह की। विवाह कहां करे? वर की खोज चलती रहती है। जब तक वह व्यवस्थित न हो जाए, चिन्ता बनी रहती है।' राजा मगांक के मन में चिन्ता थी-कन्या का परिणय कहां करे? योग मिला, कोई ज्ञानी मुनि आ गए। राजा सेवा में गया। उपासना की, धर्म सुना। सब लोग चले गए। राजा वहीं रुक गया। एकान्त में राजा ने पूछा-'महाराज! मेरा एक प्रश्न है।' 'क्या प्रश्न है राजन्!' 'व्यक्तिगत प्रश्न है।' 'क्या है?' 'आप ज्ञानी हैं। आप बताएं-मेरी लड़की का पति कौन होगा?' बड़ा अटपटा प्रश्न रख दिया। जो विशिष्ट ज्ञानी होते हैं, उनके नियम अलग होते हैं। जो सामान्य साधु होते हैं, उनके नियम अलग। जो आगमधर अथवा विशिष्ट श्रुतधर होते हैं, उनको शास्त्र नहीं देखना पड़ता। उनके लिए कोई शास्त्र और मर्यादा की बात नहीं होती। वे स्वयं शास्त्र होते हैं, स्वयं मर्यादा होते हैं। ज्ञानी मुनि ने उपयुक्त समय देखा तो कह दिया-तुम्हारी कन्या का पति मगध सम्राट् श्रेणिक होगा। पुरे राजगृहे रम्ये, श्रेणिकोस्ति महीपतिः। विशालवत्यास्त्वत्पुत्र्याः, परिणेता भविष्यति।। सम्राट श्रेणिक यह सुनकर स्तब्ध रह गया, सोचा-क्या यह कोई इंद्रजाल है? कहां मलयाचल कहां मगध? आज तो कोई दूरी नहीं है। इतने साधन हो गए कि कहां से कहां जाया जा सकता है। उस यग में. गाथा परम विजय की २६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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