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________________ गाथा परम विजय की दो स्थितियां हैं-एक असहाय वह होता है, जिसके कोई सहायक नहीं होता, जो दीन-हीन होता है। एक असहाय वह होता है, जिसको सहाय की अपेक्षा नहीं रहती। इतना शक्तिशाली कि दूसरे किसी सहायक की जरूरत ही नहीं। संस्कृत काव्य में सिंह के लिए कहा गया एकोऽहमसहायोऽहं, कृशोऽहमपरिच्छदः। स्वप्नेऽप्येवंविधा चिन्ता, मृगेन्द्रस्य न जायते।। वनराज सिंह अकेला जंगल में रहता है। वह कभी यह नहीं सोचता-मैं अकेला हूं, असहाय हूं। मेरा कोई सहायक नहीं है, साथी नहीं है। सबका यूथ होता है। सैकड़ों बंदर साथ रहते हैं। सैकड़ों हाथी साथ रहते हैं। सबका अपना-अपना यूथ/टोला होता है। मेरा तो कोई टोला ही नहीं है। मैं कृश हूं। सिंह शरीर से कृश होता है। कटिभाग तो बहुत कृश होता है। मेरा परिवार भी नहीं है। मृगेन्द्र को ऐसी चिन्ता स्वप्न में भी नहीं होती। जो अपने आप में शक्तिशाली होता है, उसको अपेक्षा भी नहीं, चिन्ता भी नहीं। विद्याधर व्योमगति ने कहा–'महाराज! मैं असहाय पराक्रम हूं। मुझे किसी की सहायता की जरूरत नहीं पड़ती।' श्रेणिक बोला-'विद्याधरवर! आपका स्वागत है। आप उच्चासन पर विराजें।' आसन खाली कर दिया। बड़े सम्मान के साथ विद्याधर को बिठाया। सम्मान का कार्यक्रम बातचीत में बदल गया। श्रेणिक ने पूछा-'महाशय! आप यहां आए, यह बहुत अच्छा हुआ। आज हमने विद्याधर को अपनी आंखों से देखा। हमने आपके चमत्कार को भी देखा। आप यहां बैठे हैं और आपका यान आकाश में स्थिर खड़ा है। आपकी दिव्य आभा सबको चमत्कृत कर रही है पर मैं यह जानना चाहता हूं-आपके आगमन का उद्देश्य क्या है?' ___ व्योमगति बोला-'राजन्! मेरी बात बहुत आश्चर्यकारी है। उसे सुनकर आपको बहुत आश्चर्य होगा। आया हूं सोद्देश्य। निरुद्देश्य नहीं आया हूं पर घटना बड़ी विचित्र है। मुझे विश्वास है-उसे सुनकर आप मेरा साथ भी देंगे।' निश्चिताद्य मया वार्ता, या चित्रास्पदकारिणी। श्रोतव्या सा त्वया भूप! कथ्यमाना मयाऽधुना।। 10
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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