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________________ देता–उन वैज्ञानिकों के पास चले जाओ, समस्या हल हो जाएगी। महारानी पुराने जमाने की थी। उस समय न प्रयोगशाला थी और न अन्वेषण का सुनियोजित उपक्रम था । महारानी ने कहा - 'महाराज ! एक जड़ी होती है अमरजड़ी। आप जंगल में जाएं। जंगल में बहुत तपस्वी, साधु, संन्यासी और अवधूत बैठे हैं, तप तप रहे हैं। वे बहुत सारी जड़ी-बूटियां जानते हैं। उनके पास जाओ, उनकी भक्ति करो, प्रार्थना करो - महाराज ! मुझे अमरजड़ी दो। कोई न कोई संन्यासी प्रसन्न होकर आपको अमरजड़ी दे देगा । उस अमरजड़ी को खाने के बाद आप भी बूढ़े नहीं बनेंगे, मैं भी बूढ़ी नहीं बनूंगी। आप भी नहीं मरेंगे और मैं भी नहीं मरूंगी। हम अमर बन जाएंगे, सदा युवा बने रहेंगे और संसार के दुर्लभ सुख चिरकाल तक भोग सकेंगे।' पद्मसेना ने कथासूत्र को आगे बढ़ाते हुए कहा- 'प्रियतम ! महारानी ने राजा के गले यह बात उतार दी।' राजा ने सोचा-महारानी बिल्कुल ठीक बात कह रही है। अब मुझे अमरजड़ी ले आनी चाहिए। मैं अमरजड़ी ले आऊंगा तो मेरा यौवन अमिट हो जाएगा, मैं कभी बूढ़ा नहीं बनूंगा । कोई भी समझदार व्यक्ति बूढ़ा बनना नहीं चाहता। अवस्था आए तो आए पर अवस्था का जो परिणाम है बुढ़ापा, उसे वह नहीं चाहता। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने भाव भरे स्वर में कहा - 'प्रिये ! तुमने बहुत सुंदर उपाय बताया है। अपने स्वामी का हित चिन्तन करने वाली ऐसी महारानी किसी को भाग्य से ही मिलती है।' अजर-अमर होने की इस सीख ने राजा के मानस को छू लिया। उसका मन उसे पाने के लिए व्याकुल बन गया। वह रात-दिन अजर-अमर बनने का सपना देखने लगा। अमरजड़ी को पाने की चाह प्रबल गई। उसने जंगल में प्रस्थान की तैयारी शुरू कर दी। राजा ने सोचा–इतने बड़े काम के लिए जाना है तो अच्छा मुहूर्त भी देख लेना चाहिए। उसने राज ज्योतिषी को बुलाया, निर्देश दिया - ज्योतिषी महाशय ! ऐसा अच्छा मुहूर्त देखो कि मेरा मनोरथ सफल हो जाए, मेरा काम सिद्ध हो जाए। ज्योतिषी ने मुहूर्त, पल, घड़ी, दुघड़िया देखा और कार्य सिद्धि के लिए अनुकूल समय बताते हुए कहा- 'राजन् ! आप इस मुहूर्त में प्रस्थान करें, आपका काम सफल हो जायेगा।' राजा ने वेश परिवर्तन किया और नियत समय पर अकेला जंगल की ओर चल पड़ा। उसने बहुत मुसीबतें और कठिनाइयां झेलीं। सदा राजप्रासाद में रहा । वैभव-विलास का जीवन जीया । सैकड़ों दासदासियां सेवा में हाजिर रहतीं। कभी पानी का गिलास भी नहीं उठाया। न खाने की चिन्ता, न पीने की चिन्ता। अब कोई पास में नहीं, न खाने-पीने की व्यवस्था, न सेवा की व्यवस्था किन्तु इस कठिन स्थिति में भी उसे अमरजड़ी के सिवाय कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। 'प्रियतम! आप ध्यान से सुन रहे हैं ना ? जब कोई भूत सिर पर होता है तो कुछ दिखाई नहीं देता । मुझे लगता है कि आपके सिर पर भी दीक्षा का कोई भूत सवार हो रहा है । आप भी किसी की बात नहीं मान रहे हैं। जैसे रानी ने राजा को ठग लिया वैसे ही आपको भी किसी ने ठगा है।' ‘प्रियतम! राजा ने भयावह जंगल में एकाकी भटकना शुरू किया। जहां कोई तपस्वी तप में लीन मिलता, त्रहां ठहरता, तपस्वी को प्रणाम करता और अपने मन की चाह की पूर्ति की आशा बलवती हो जाती । २०० ܠnna m गाथा परम विजय की www &
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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