SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा होता है, दुनिया में ठगाई बहुत चलती है। आप बड़े घर में रहे हैं, वैभव का जीवन जीया है, आपको दुनिया का पता नहीं है। हमारा अनुभव है, हमने दुनिया को देखा है। हम यह जानती हैं कि दुनिया में कितनी ठगाई चलती है। आपको सचमुच किसी गुरु ने ठग लिया है। ' जम्बूकुमार ने मृदु स्वर में प्रतिवाद किया'पद्मसेना ! मेरी चेतना स्वतंत्र है, जागरूक है। मैं कोई नशा नहीं करता, मादक वस्तु का सेवन नहीं करता । मेरा मन शान्त है, संतुलित है। कभी डिप्रेशन नहीं होता, अवसाद नहीं होता। मेरा भावात्मक जगत् बहुत सुन्दर है। मैं भी आवेश में नहीं आता। ठगाई में वह व्यक्ति फंसता है, जो स्वयं ठगाई की वृत्ति रखता है। मेरी सहज सरलता और पवित्रता के सामने कोई ठगाई टिक नहीं सकती। तुम विश्वास करो-न किसी ने मुझे ठगा है, न वशीकरण किया है, न मोहनीय मंत्र का प्रयोग किया है। तुम कैसे कह सकती हो कि मैं ठगा गया हूं।' ‘प्रियतम! जो ठगा जाता है, वशीकृत हो जाता है, उसे यह पता ही नहीं चलता कि वस्तुस्थिति क्या है ?" 'क्या तुम्हें वस्तुस्थिति का पता है ?' 'हां, स्वामी!’ 'पद्मसेना! तुम वस्तुस्थिति बताओ। मैं अवश्य सुनूंगा। मेरा जीवन खुली पुस्तक है। उसका हर पृष्ठ खुला है। जहां से चाहो, खोलकर पढ़ लो। मुझे कोई कठिनाई नहीं है। मुझे यह भी विश्वास है कि मैं बिल्कुल ठगाई में नहीं हूं फिर भी तुम जो मर्म की बात कहना चाहती हो, उसे प्रस्तुत करो।' पद्मसेना ने किंचित् क्षोभ के साथ कहा- 'प्रियतम ! आप पहले ही यह मान बैठे हैं कि मैं ठगाई में नहीं हूं तो फिर कहने का मतलब क्या है? यदि सामने वाला व्यक्ति अनुभव करे कि मैं बीमार हूं तो डॉ. कुछ चिकित्सा करे। वह यह कहे कि मैं बीमार नहीं हूं तो फिर डॉ. क्या करेगा? कोई आवश्यकता ही नहीं है।' 'प्रियतम! अनेक व्यक्ति ऐसे हैं जो रोगी हैं किन्तु उनको भी पता नहीं चलता कि मैं बीमार हूं। कुछ बीमारियां भी ऐसी होती हैं कि पता नहीं चलता। कैंसर की बीमारी का प्रारंभ में पता नहीं चलता। जब तक पता चलता है तब तक काम आगे बढ़ जाता है। बीमारी लाइलाज हो जाती है। आपको भी यह पता नहीं है कि आप ठगे गए हैं। आप बहुत सुकुमार हैं, साथ में भोले भी हैं और भद्र भी, इसलिए इस दुनिया की चालाकी को समझ नहीं पा रहे हैं। ' 'पद्मसेना! तुम जो सोच रही हो, वह सही नहीं है, फिर भी तुम अपनी बात कहो, मैं ध्यान से सुनूंगा।' १६८ गाथा परम विजय की m ব
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy