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________________ J गाथा परम विजय की विस्मय - विमुग्ध राजा ने पुनः पूछा- कौन हो तुम?" 'मैं मानवी हूं, स्त्री हूं।' 'यहां कैसे खड़ी हो ?' 'ऐसे ही खड़ी हूं।' ‘और कौन है तुम्हारे साथ?' उस स्त्री ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा- 'कोई नहीं है अब मेरा । ' राजा और अपनी पत्नी का वार्तालाप सुन रहे वानर ने सोचा- 'देखो, क्या कह रही है। कितना झूठ बोल रही है कि मेरा कोई नहीं है। यह असली बात नहीं बता रही है । ' राजा ने प्रसन्न होकर आमंत्रण दिया- 'आज से मैं तुम्हारा हूं।' राजा ने उसको बहुत स्नेह दिया, कहा——तुम आओ, मेरे साथ चलो।' वह राजा उसके सौन्दर्य पर इतना मोहित हुआ कि उसको अपनी पटरानी बना लिया। 'प्रियतम ! वह बंदर बंदर ही रह गया और वह स्त्री राजा की पटरानी बन गई।' अब बंदर क्या करे? वह अकेला रह गया। बावड़ी से बाहर आया । दुःखी और उदास इधर-उधर घूमने लगा। कुछ मदारी लोग आए। उन्होंने बंदर को अकेले घूमते देखा। उन्होंने बंदर को पकड़ने के लिए हंडिया रखी। बंदर को पकड़ने की एक विद्या होती है। हमने उत्तरप्रदेश और बिहार में बंदर को पकड़ने का यह प्रयोग देखा-जहां बहुत ज्यादा बंदर होते हैं, जगह-जगह पर हंडिया रखी हुई होती है। हंडिया का मुंह संकरा होता है और उसके भीतर चने डाले हुए होते हैं। बंदर चने का बड़ा शौकीन होता है। चने की सुगंध आती है तो वह उसे खाने के लिए कहीं चला जाता है। मदारी ने हंडिया रखी, उसमें चने रखे। बंदर उधर आया, हंडिया में हाथ डाला। बर्तन ऐसा होता है कि हाथ डालते ही अंदर चला जाये। निकालो तो निकल जायेगा पर चने उठाकर मुट्ठी बांध लो तो हाथ नहीं निकलेगा। बंदर ने अपनी मुट्ठी में चने भर लिए। उसे छोड़ना बंदर के वश की बात नहीं होती । वह चने को छोड़ नहीं सकता और मुट्ठी बंद हो जाती है तो हाथ निकाल नहीं सकता। इस उलझन में वह उलझ जाता है। मदारी इस स्थिति में बंदरों को पकड़ लेते हैं। ऐसा ही उस मदारी ने किया और बंदर को पकड़ लिया। एक बार जो फंस जाता है, वह फिर फंसता ही जाता है। वह बंदर बंधन में आ गया, मदारी के पास पहुंच गया। मदारी ने बंदर को खेल सिखाए। वह बंदर को अपने साथ ले जाता है, खेल दिखाता है और पैसा कमाता है। 'प्रियतम! अब वह बंदर बहुत पछता रहा है। वह सोचता है मैं अगर दूसरी बार डुबकी नहीं लेता, अतिलोभ नहीं करता और यह देवता बनने की बात मन में नहीं सोचता तो आज मैं भी आदमी होता, मेरे साथ मेरी पत्नी होती, परिवार होता । मैं सुखोपभोग करता, स्वतंत्रता का जीवन जीता, अच्छी तरह रहता । मेरी यह दशा क्यों होती? मुझे क्यों ये नाच, खेल करना पड़ता ? क्यों ये करतब दिखाने पड़ते। बंदर मन में बहुत पछता रहा है पर अब क्या हो सकता है ? ' १८७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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