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________________ ये तो गुदड़ी में छिपे लाल हैं। बहुत समझदार हैं। इन्होंने बात भी बहुत अच्छी कही है और सत्य भी यही है। हम मोह में हैं, मूर्छा में हैं। माने या न माने पर जो प्रियतम कह रहे हैं वह ऐसा सच है जिसे तर्कों से काटा नहीं जा सकता। जहां सचाई परोक्ष होती है वहां तर्क काम देता है। यह तो आंखों के सामने प्रत्यक्ष है। यह पदार्थ का स्वभाव है, सत्य है। स्वभावे तार्किका भग्नाः-जहां स्वभाव है वहां तर्क कोई काम नहीं देता। मूर्छा के कारण हमें सचाई का पता नहीं चलता। हम समझ नहीं पा रहे हैं किन्तु यह सत्य है कि यह भोग और सुख की कल्पना आदमी को उलझाने वाली है, इसलिए हमें भी दूसरी बात सोचनी चाहिए। जम्बूकुमार ने समुद्रश्री की ओर दृष्टिक्षेप करते हुए पूछा-'समुद्रश्री! क्या चिंतन है तुम्हारा? इसका क्या उत्तर देना चाहती हो?' समुद्रश्री बोली-'प्रियतम! अब चर्चा समाप्त है। न कोई प्रश्न और न कोई उत्तर।' 'बोलो, तुम क्या चाहती हो।' 'जो आप चाहते हैं वही मैं चाहती हूं।' सातों नवोढ़ाएं एक साथ व्यंग्यात्मक भाषा में बोल उठीं-'समुद्रश्री! तुमने हमारा अच्छा प्रतिनिधित्व किया! हमने तो सोचा था-तुम हमारा काम करोगी पर तुम तो कमजोर निकली। एक झटका लगा जम्बूकुमार का और तुम पिघल गई। ऐसी ठंडी बर्फ, हाथ से छुआ और पिघल गई। निकम्मी हो तुम। बैठ जाओ अब। तुमसे काम नहीं होगा। तुमने हमें धोखा दे दिया। तुमने यह नहीं सोचा-पीछे सात बैठी हैं, उनका क्या होगा? तुमने हुंकारा भर लिया, अच्छा नहीं किया।' ___ यह दुनिया की रीत है कि जहां स्वार्थ का संबंध टूटता है वहां आदमी का दृष्टिकोण और भाषा बदल जाती है। ___ पद्मश्री बोली-'प्रियतम! यह हमारी बहिन समुद्रश्री, जिसको हम होशियार समझते थे, चतुर समझते थे, बहुत भोली निकली। यह आपके झूठे फंदे में फंस गई। आपने ऐसा मायाजाल बिछा दिया कि यह फंस गई पर हम फंसने वाली नहीं हैं। आपने एक को अनुकूल कर लिया तो क्या हुआ? आपको तो हम सातों की बात सुननी पड़ेगी। फिर आप कोई निर्णय कर सकेंगे। प्रियतम! मैं भी आपसे कुछ कहना चाहती हूं।' ____ जम्बूकुमार ज्येष्ठा समुद्रश्री की चिन्तनधारा के रूपान्तरण में सफल हो गया। इस सफलता से उसका . हृदय प्रसन्न हो गया। ___समुद्रश्री का मन संतुष्ट हो गया। अध्यात्म पथ उसे रुचिकर लगने लगा। सातों नवोढ़ाएं समुद्रश्री के मानस-परिवर्तन से क्षुब्ध बन गईं। जम्बूकुमार की इस सफलता को विफलता में बदलने का निश्चय किया। पद्मश्री उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए उद्यत हुई। क्या वह अपने प्रयत्न में सफल होगी? क्या वह समुद्रश्री की हार को विजय में बदल सकेगी? गाथा परम विजय की ५ - २
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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