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________________ Rand जहां भोग है वहां उपलेप होता है। लेप, बंधन भोग के साथ चलता है। जो अभोगी है, भोग से दर रहता है उसके उपलेप नहीं होता, बंधन नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है और अभोगी मुक्त हो जाता है।' जयाचार्य ने इस महावीर वाणी का बहुत सुन्दर अनुवाद किया है अग उपलेप लगे भोगी है, अभोगी तो नाहि लिपायौ रे। भोगी संसार में भ्रमण करै छ, अभोगी तो जात मुकायो रे।। भोगी के लेप लगता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है, अभोगी मुक्त हो जाता है। 'समुद्रश्री! मैंने इस सचाई को समझा है। यह तुम्हारी इच्छा है कि तुम इसे समझो या नहीं। मैंने इतनी बात तुमको बताई। इस पर भी अगर नहीं समझती हो तो लो एक कहानी मैं तुमको और सुनाऊं।' 'प्रियतम! अवश्य सुनाइए। आपकी कथ्य शैली मुझे पुनश्चिंतन के लिए विवश कर रही है।' 'समुद्रश्री! एक कौआ था। वह जंगल में रहता था। जंगल में एक हाथी मरा, उसका विशालकाय कलेवर पड़ा रहा। कौआ उसी पेड़ पर रहता था। उसने सोचा-बहुत अच्छा हुआ, अब कहीं खाने के लिए जाने की जरूरत नहीं है। वह हाथी के शरीर पर बैठ गया. मांस खाता रहा। खाते-खाते हाथी के कपाल का मांस खा लिया। हाथी का सिर विशाल होता है। वहां एक बड़ा कोटर बन गया। कौए ने सोचा-मुझे बहुत अच्छा घर मिल गया। उसने वहीं अपना घोंसला बना लिया। वह वहीं बैठा रहता। जब इच्छा होती, मांस खाता रहता। दूसरे कौए आते, मांस खाते, उड़कर चले जाते। वह उड़कर नहीं गया, वहीं टिक गया, उसमें लिप्त हो गया। वर्षा का मौसम आया। तेज वर्षा हुई। हाथी का कलेवर पानी में बह गया। नदी के प्रवाह में बहता हुआ वह कलेवर समुद्र में चला गया। कौआ वहीं बैठा रहा, उड़ा नहीं। क्योंकि उसमें इतनी आसक्ति हो गई कि वह छोड़ नहीं पा रहा था। समुद्र में जो मगरमच्छ आदि जीव थे, उन्होंने हाथी के शरीर को खा लिया। कोरी कोटर की हड्डी रह गई और कौआ रह गया। अब वह क्या करे? कौए ने सोचा-अब उड़ना चाहिए। आकाश में उड़ान भरी, कुछ उड़ा, थक गया। न ठहरने के लिए कोई पेड़ मिला, न निवास करने के लिए कोई स्थान मिला। वह नीचे उतरा, कोटर में ठहरा। फिर उड़ा। दो-चार बार ऐसा किया, थक गया, थक कर चूर हो गया, परेशान हो गया। कोई विश्राम का स्थान नहीं मिला, आखिर थककर पानी में गिरा और वहीं मर गया।' समुद्रश्री! यही हालत विषयासक्त व्यक्ति की होती है। जो आदमी जीवनभर विषय में आसक्त रहता है, उसको कभी छोड़ता नहीं है, वह मृत कलेवर में बैठे हुए कौए की भांति कहीं बहकर समुद्र में चला जाता है। उसको रहने के लिए कोई अवकाश, स्थान नहीं मिलता। उसकी वही गति होती है, जो उस कौए की हुई। समुद्रश्री! तुम इस सचाई को समझो।' ___ जम्बूकुमार की अतीन्द्रिय चेतना का यह प्रवचन सुना, सचाई सामने आई तो समुद्रश्री का मन भी बदल गया। उसने सोचा-बात तो ठीक कही जा रही है। हमने तो समझा था कि प्रियतम समझदार नहीं हैं पर १८२ गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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