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________________ गाथा परम विजय की 'प्रियतम! आपने यह कहानी ध्यान से सुनी।' 'हां।' 'प्रियतम! विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को कहानी सुनाई थी और मैं आपको सुना रही हूं, जैसे बग किसान पछताया आप भी वैसे ही पछताएंगे। आपको इतना बड़ा घर मिला है, इतना बड़ा परिवार मिला है, इतनी सम्पदा मिली है और हम आठों नवोढ़ाएं आपके चरणों में समर्पित हैं, आपके हर सुख-दुःख की सहचरी हैं। आपको जो यह प्राप्त है, उसको तो छोड़ रहे हैं और अप्राप्त की आशा कर रहे हैं। आप सोच रहे हैं मैं साधु बनूंगा तो मुझे स्वर्ग मिलेगा, अप्सराएं मिलेंगी। यह तो चला जाएगा और वह मिलेगा, इसका कोई भरोसा नहीं है। क्या यह मूर्खता नहीं है? खड़ी फसल को काटकर नई फसल की आशा करना कितना उचित है? आपको आगे क्या मिलेगा, आपको यह भी पता नहीं है। मरकर आप रहेंगे या नहीं? कहां जायेंगे?' समुद्रश्री ने यह वक्तव्य इंद्रिय चेतना के स्तर पर दिया। इंद्रिय चेतना में परोक्ष का स्वीकार नहीं है। परोक्ष और प्रत्यक्ष दो हैं। एक होता है प्रत्यक्षा एक होता है परोक्ष। इंद्रिय चेतना में केवल प्रत्यक्ष का स्वीकार है, परोक्ष का स्वीकार नहीं है। आंख देखती है पर जो सामने है उसको देखती है। यह उसकी सीमा है। वह कितनी दूर देखेगी, इसकी सीमा है। परोक्ष को बिल्कुल नहीं देख सकती, दीवार के पीछे क्या है, आंख बिल्कुल नहीं देख सकती। जो सामने है, वह दिखाई देगा। सामने यवनिका कर दो, परदा डाल दो, कुछ नहीं दिखेगा। ___आंख की सीमा है। सुधर्मा सभा में इतने परमाणु स्कन्ध हैं, इतने सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध हैं, अगर उन सबको स्थूल बनाया जाये तो पूरे हिन्दुस्तान में ही नहीं, आज की दुनिया में भी न समाएं। इतने परमाणु स्कन्ध हैं पर आंख सूक्ष्म को नहीं देखती। आंख प्रत्यक्ष को देखती है, परोक्ष को नहीं देखती। __ समुद्रश्री ने जम्बूकुमार को संबोधित करते हुए कहा–'प्रियतम! किसने देखा है कि मरकर आप स्वर्ग में कहां जायेंगे? आपको पता है क्या? यह आपने कैसे मान लिया कि मैं साधु बनूंगा, साधना करूंगा, केवली बनूंगा।' 'प्रियतम! मैं ठीक कहती हूं कि आप बग किसान की तरह पछताओगे। पश्चात्ताप के क्षणों में कोई आड़े नहीं आयेगा। जैसे समुद्र ने पछतावा किया, बग किसान ने किया। आप भी करेंगे। इसलिए जिद्दी मत बनो। कहते हैं कि स्त्रियां ज्यादा जिद्दी होती हैं पर आप पुरुष होकर भी जिद्दी बन गये। जिद मत करो, मेरी बात को मानो, ठंडे दिमाग से सोचो। एकांत में बैठकर सोचो, जल्दबाजी में कोई कदम मत उठाओ। गहराई से सोचो।' यह सारी बात कौन बोल रहा है? क्या समुद्रश्री बोल रही है? वस्तुतः समुद्रश्री नहीं बोल रही है, इंद्रिय चेतना बोल रही है। इंद्रियां अपनी तृप्ति चाहती हैं। कान अच्छा शब्द सुनना चाहता है, आंख अच्छा रूप देखना चाहती है, नाक सुगंध का, परिमल का आस्वाद लेना चाहता है, जीभ सरस चीजें खाना चाहती है। स्पर्शन इंद्रिय कोमल स्पर्श चाहती है। इंद्रियां अपना-अपना विषय चाहती हैं। जब आदमी इंद्रिय चेतना की भूमिका पर होता है उसका निर्णय भी यही होगा, उसका कथन भी यही होगा। १७५
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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