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________________ गाथा परम विजय की एक अजीब सी खामोशी और स्तब्धता थी। न तो जम्बूकुमार बोल रहा है और न नव परिणीता पत्नियों की ओर देख रहा है। नापि वक्ति न पश्येच्च सुरूपास्वपि तासु वै । स्थितः स्थिरतरः स्वामी निस्तरंगसमुद्रवत् ।। जम्बूकुमार उनके सामने नहीं देख रहा है । वे नवौढ़ा कन्याएं भी इतनी गंभीर बनी हुई हैं कि वे भी जम्बूकुमार के सामने देख नहीं पा रही हैं। जैसे कन्याओं और जम्बूकुमार के बीच में यवनिका डाल दी गई। एक-दूसरे के पास बैठे हुए वे अपने आपको एक-दूसरे से अलग-थलग अनुभव कर रहे हैं। काफी समय बीत गया। कोई पसीजा नहीं। कहा गया - एकान्त में अकेली स्त्री के साथ रात को अकेला न रहे। यदि व्यक्ति अकेला रहता है तो आवेशवश पतन का प्रसंग बन सकता है। एक मुनि के लिए विधान किया गया—मुनि दिन में भी अकेली स्त्री के साथ वार्ता न करे। जहां अकेला पुरुष और अकेली स्त्री होती है वहां काम के आवेश का प्रसंग बन सकता है। जम्बूकुमार आठ स्त्रियों से घिरा हुआ बैठा है फिर भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। वह अप्रभावित बना हुआ है। तत्र वाचंयमीवाशु, तस्थौ स्वामी विरक्तितः । संस्थितश्चापि तन्मध्ये पद्मपत्रं जले यथा ।। अप्रभावित कौन रह सकता है? इसकी बहुत सुन्दर मीमांसा आचार्य भिक्षु ने की है जेहनी मींजी भेदाणी, तेहनी किम पलटे वाणी । लागो रंग चोल मजीठो, जे जातो किण ही न दीठौ ।। मजीठ का रंग उतरता नहीं है। हल्दी का रंग कच्चा होता है वह जल्दी उतर जाता है। पर मजीठ का रंग पक्का होता है, वह लग जाता है तो उतरता नहीं है । जम्बूकुमार की चेतना और मन पर ऐसा मजीठ का रंग हो गया, वैराग्य या आत्मदर्शन का रंग लग गया। एक लय लग गई- मुझे आत्मा का साक्षात्कार करना है, आत्मा को देखना है, वह रंग अब उतरने वाला नहीं है। हल्दी जैसा कच्चा रंग होता है खतरा होता है। वह उतर जाता है, दूसरे रंग से प्रभावित हो जाता है। जिनके वैराग्य का मजीठ का रंग लग जाता है, उतरता नहीं है । जो दृढ़ निश्चय कर लिया और जिसकी मज्जा का भेदन हो गया, उसको कोई प्रभावित नहीं कर पाता। बहुत मर्म की बात लिखी है - हमारे शरीर की हड्डियों और हाड़ की मज्जा तक जो बात पहुंच जाती है, वह बदलती नहीं है। ऊपर-ऊपर रहती है तो बदल जाती है। आज का मनोविज्ञान कहता है–जो बात चेतन मन तक रहती है, उसकी धुलाई हो जाती है किंतु जो अवचेतन मन तक चली जाती है, वह बात गहरी जम जाती है। आगम की भाषा है-अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते - जो मज्जा तक चला गया, वह विचार, वह भाव फिर उतरता नहीं है। राजस्थानी भाषा में कहते हैं इनकी तो हड्डी और मज्जा धर्म स्यूं रंग्योड़ी है। मज्जा हमारे ज्ञान का मुख्य केन्द्र है। हमारे मस्तिष्क में भी मज्जा है ग्रे मेटर है, वह विशिष्ट होता है। अस्थि के साथ जो मज्जा है और उस मज्जा तक जो बात चली जाती है वह पक्की हो जाती है। १५६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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