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________________ गाथा परम विजय की ___प्राचीनकाल में, स्मृति काल में शपथ दिलाई जाती थी कि तुम पाणिग्रहण कर रहे हो। जिसके साथ पाणिग्रहण होता है उसे आजीवन निभाना है। जैसे कोई साधु महाव्रत स्वीकार करता है अथवा श्रावक भी अणुव्रतों को स्वीकार करता है तो यावज्जीवन के लिए करता है। यावज्जीवन का संकल्प बड़ा मजबूत होता था। दो वर्ष के लिए, चार वर्ष के लिए जो संकल्प किया जाता है उसमें वह दृढ़ता नहीं आती। आजीवन करता है तो बहुत अंतर आता है। एक महीने की तपस्या और एक दिन का संथारा-दोनों में संकल्प का अंतर बहुत है। एक संकल्प है-मैं आजीवन नहीं खाऊंगा। एक संकल्प है-एक महीने तक नहीं खाऊंगा। एक संकल्प में निश्चित अवधि है, यह आशा जुड़ी हुई है-एक महीने के बाद खा लूंगा। आजीवन संकल्प में आशा का सर्वथा विच्छेद है। आजीवन आहार का त्याग कर दिया, इसका अर्थ है-आशा को सर्वथा त्याग दिया। जिसके साथ पाणिग्रहण कर रहे हो, उसके साथ संबंध को आजीवन निभाना यह संकल्प दिलाया जाता था। विवाह को सामाजिक पर्व माना गया। यह सामाजिक व्रत होता था, संकल्प दिलाये जाते थे। जम्बूकुमार और आठों कन्याओं को संकल्प दिलाए गए। पाणिग्रहण की रस्म पूरी हो गई। विवाह संपन्न हो गया। विवाह के साथ दहेज की बात आती है। आजकल तो दहेज का प्रश्न बहुत चर्चित है। यह स्वर प्रबल बना हुआ है दहेज बंद होना चाहिए। अणुव्रत का भी एक नियम है-दहेज का प्रदर्शन न हो। उस युग में न तो दहेज को बंद करने की कोई कल्पना आई थी और न प्रदर्शन कम करने की बात थी। प्रदर्शन भी किया जाता था। दहेज भी बड़े लोग खूब देते थे। आठों पिताओं ने पुत्रियों को जो दहेज दिया, उसका विशद वर्णन मिलता है। कहा जाता है एक सौ बानवे प्रकार की वस्तुएं दी। कुल मिलाकर ६९ करोड़ सौनेयों का दहेज दिया। एक सौ बानवे बोल नो ए, दियो डायचे दान। अणगणियो दियो बलि ए, घणो देई आदर सम्मान।। निनाणूं करोड़ तो सोनईया दिया ए, वले रूपइया जाण। दीधा घणा हर्ष सूं ए, मन माहे उद्यम आण।। ६९ करोड़ सौनेयों का नाम भी इतना मोहक है कि सुनते ही ध्यान चला जाता है। ध्यान दूसरों का भी चला जाता है। चोर, डकैतों का तो ध्यान जरूर जाता है। जहां सोने का नाम आता है वहां सोना भी आदमी भूल जाता है। संस्कृत साहित्य में कहा गया नामसाम्यात् धत्तूरोऽपि मदप्रदः। स्वर्ण की महिमा क्या बताएं? संस्कृत कोष में सोने के जितने नाम हैं उतने ही नाम धत्तूरे के हैं। धत्तूरे और सोने के पर्यायवाची नाम एक हैं। कवि ने लिखा-नाम समान है, गुण समान नहीं है। पर नाम की समानता का इतना प्रभाव है कि धत्तूरा खाओ तो नशा आ जायेगा। आठों कन्याओं को इतना प्रचुर दहेज दिया कि ऋषभदत्त का विशाल प्रासाद स्वर्ण-चांदी से आकीर्ण हो गया। आज भी कहीं-कहीं इस प्रकार का प्रसंग मिलता है। एक बार समाचार-पत्र में पढ़ा था कि विदेश में एक व्यक्ति ने करोड़ों डालर का दहेज दिया। हिन्दुस्तान में भी विवाह में बहुत दहेज दिया जाता है, कहीं-कहीं आडंबर भी होते हैं। वह समय अलग था, उस युग का चिंतन भी भिन्न प्रकार का था। ऋषभदत्त श्रेष्ठी ने उस विशाल दहेज को स्वीकार कर लिया। १५३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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