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________________ गाथा परम विजय की अपना-अपना दृष्टिकोण और अपना-अपना चिंतन होता है। एक व्यक्ति स्वार्थ की भावना से कुछ करना चाहता है। दूसरा, जो स्वार्थ से ऊपर उठ गया, वह उससे भिन्न कुछ करना चाहता है। सब लोग न एक प्रकार से सोचते हैं और न एक प्रकार का कार्य करते हैं। हर कार्य और चिंतन के पीछे एक अंतःप्रेरणा होती है। जैसी भीतर की प्रेरणा होती है, व्यक्ति वैसा ही सोचता है और वैसा ही कार्य करता है। माता की प्रेरणा दसरे प्रकार की थी और पत्र की प्रेरणा भिन्न प्रकार की। दोनों में कहीं सामंजस्य नहीं हो रहा था। ___ जम्बूकुमार की माता ने सोचा मैं स्वार्थ की बात करूंगी तो यह नहीं मानेगा। अब तो कोई दूसरा उपाय करना चाहिए। हर आदमी मनोवैज्ञानिक ढंग से काम करना चाहता है जिससे दूसरा उसकी बात को स्वीकार कर ले। मां ने एक उपाय खोजा और कहा-बेटा! तू कहता है कि मैं साधु बनूंगा। तुमने अभी जाना ही नहीं कि साधुपन क्या होता है? अगर तू यह समझ लेता तो ऐसी भोलेपन की बात कभी नहीं करता। मैंने तो समझा था कि तू होशियार हो गया, समझदार हो गया किन्तु लगता है-अभी तुम भोले ही हो। जो भोला होता है वह बात को सम्यक् समझ नहीं पाता। सुधर्मा स्वामी ने कुछ और कहा है और तूने कुछ और समझ लिया है। जो भोला होता है वह समझ भी कैसे सकता है?' ____सास ने बहू से कहा-अंधियारा हो रहा है। पोल में दीया जला दो। बहू ने दीया जलाया। भीतर पति सो रहा था। सर्दी का मौसम था। सोड़ (शॉल) ओढ़ी हुई थी। बहू भीतर गई। पति की ओढ़ी हुई ‘सोड़' पर जलता हुआ दीया रख दिया। सोड़ जल गई। पति चिल्लाया। तत्काल सोड़ को दूर फेंका। उसने कहा-अरे! यह क्या किया? क्या मुझे मारना था? पुत्र की चीख-पुकार सुनकर मां कमरे में आई। सोड़ को जला हुआ देख वह स्तब्ध रह गई। उसने बहू से कहा-'अरे! तुमने दीया कहां जलाया?' बहू–'सासजी! जहां आपने कहा था।' सास-'मैंने तो यह कहा था कि तुम मुख्य द्वार पर दीप जला दो।'
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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