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________________ गाथा परम विजय की तू कौन है? कहां से आया है? कौन तेरी मां है? कौन तेरा पिता है? सारा संसार झूठा है, बादल की छाया है। यह संसार हटवाड़ा का मेला है। संसार के प्रतिकूल उपदेश दिया जाता है। संबंध को जोड़ने वाला नहीं, संबंधों को तोड़ने का उपदेश दिया जाता है। समस्या यह है-संसार में रहने वाला सामाजिक प्राणी किस बात को माने? संसार सच है-इसको माने या संसार झूठा है-इसको माने? संसार बादल की छाया है-इसको सच माने? संसार मोहक माया है-इसको सच माने? बाजार में जाओ तो संसार मोहक माया है और सुधर्मा सभा में आओ तो संसार बादल की छाया है। दोनों अपने-अपने स्थान पर उपयुक्त हैं। क्योंकि जीवन चलाना है तो बाजार की बात भी माननी पड़ती है और जीवन को अच्छा बनाना है तो बादल की छाया को भी मानना होगा, उसके बिना जीवन अच्छा बनेगा नहीं। जब कोई व्यक्ति साध के पास जाता है तो साध त्याग की बात कहता है. छोडने का उपदेश देता है। जब बाजार में जाता है, दुकानों में सजी हुई मनहर वस्तुओं को देखता है तो त्याग की बात काफूर हो जाती है। वह भोग में उलझ जाता है। मनुष्य ही नहीं, पशु भी अपनी प्रिय वस्तु को देख दिग्भ्रमित हो जाता है। संस्कृत कवि ने लिखा-गहरी वर्षा हुई। नदी बह रही है। दोनों तरफ सघन हरियाली है, एक गाय वहां चली गई। इधर भी हरियाली, उधर भी हरियाली। गाय सोचती है-पहले इसको खाऊं या उसको खाऊं। वह एकदम मूढ़ बन जाती है। उसे चारों तरफ मोहकता ही मोहकता लगती है। मोह की स्थिति में आदमी भी दिग्मूढ़ बन जाता है। वह मोह के जाल में फंस जाता है। केवल मोह का वातावरण रहे तो दुःखों का कहीं पार नहीं आता। मोह के साथ निर्मोह की बात सुनने को मिलती है तो थोड़ा सोचने का मौका मिलता है और आदमी दुःखों से छुटकारा पाता है। सुधर्मा स्वामी ने लक्ष्यपूर्वक एक विशेष धर्म देशना शुरू की 'देखो, संसार को समझो, सचाई को समझो। सत्य क्या है-इसे समझो। नींद में सपना आया। जो सपना आया, वह सच है या जागरण के बाद जो अनुभव कर रहे हो, वह सच है। मोह स्वप्न की सी भ्रांति देता है। स्वप्न में आदमी एक कल्पना करता है, देखता है और जागने पर कुछ भी नहीं। वैसे ही राग में आदमी एक प्रकार की कल्पना करता है, वैराग्य आता है तो लगता है-यह कुछ भी नहीं है।' ___ प्राचीन संस्कृत-प्राकृत साहित्य में स्वप्न से संबद्ध अनेक कथाएं विश्रुत हैं-पुजारी का सपना, भिखारी का सपना, जनक का सपना। संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी में सपने पर विशाल साहित्य रचा गया है। अगर सपने के पंख लग जाते तो आदमी उड़ान भर लेता। पर आज तक भी सपनों के पंख नहीं लगे, इसलिए स्वप्न को छोड़ो, यथार्थ को समझो और चेतो। पुराने संत उपदेश की ढालों में यही गाते थे _ 'चेत चतुर नर कह तनै सतगुरु किस विध तू ललचाना है। ___ मानव! तुम चेतो। तू क्यों ललचा रहा है? क्यों मूढ़ बन रहा है? मूढ़ मत बनो। जो जीवन मिला है, उसे प्रमाद में मत गंवाओ। अपनी आत्मा का हित साधन करो।' ____ आचार्य सुधर्मा ने धर्म का मर्म समझाया-प्रेय और श्रेय-दो तत्त्व सामने हैं। एक प्रेय–प्रिय लगता है। चीनी मीठी लगती है, प्रेय है। गुड़ मीठा लगता है, प्रेय है। चीनी को छोड़ना श्रेय है। नीम कड़वा लगता है किंतु वह श्रेय है, हितकर है। प्रेय और श्रेय का विवेक करो। केवल प्रिय लगता है इसलिए उसको बहुत मूल्य मत दो। हित क्या है, इसका अनुचिन्तन करो। १०७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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