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________________ मरणांतिगे समाहिं जो दट्ठण पयदपरो खवगस्स। णिच्चुवजुत्तो तम्हि साहुसमाहिधारगो सो हु॥५॥ अन्त समय में मरण समाधि धार रहा उत्साहित हो क्षपक मोह क्षय करने वाला देख रहा उसका भी हो। जो उसकी परिचर्या में नित तत्पर हो उपयोग लगा साधु समाधि भावना धारक तीर्थंकर पद बन्ध पगा॥५॥ अन्वयार्थ :[खवगस्स] क्षपक की [ मरणांतिगे] मारणान्तिक समय में [ समाहिं] समाधि को [ जो] जो साधु [ दट्टण ] देखकर [ पयदपरो] प्रयत्नशील होता है [ तम्हि ] और उसमें [ णिच्चुवजुत्तो ] नित्य उपयुक्त रहता है [सो ] वह [ हु] निश्चित ही [ साहु समाहि धारगो ] साधु समाधि का धारक होता है। भावार्थ : जो साधक समाधिमरण अंगीकार करता है वह क्षपक कहलाता है। वह क्षपक मरण समय में अति विशुद्धि धारण करता है। समाधि में संलग्न उस साधु को देखने के लिए जो मन से उत्कण्ठित होता है वह साधु समाधि की भावना करता है। साधु की समाधि में हमेशा प्रयत्नशील साधु क्षपक की सेवा में अपना उपयोग लगाता है। उस क्षपक के निमित्त से सेवा करने वाला साधु अपने भावों की विशुद्धि बढ़ाता है जिससे तीर्थंकर पुण्य कर्म का बन्ध करने में समर्थ हो जाता है। तव-सुद-सहिदो चेदा हवदि आराधगो दससु धम्मेसु। दिढकरणं सदाए साहुसमाहिभावणा तस्स॥ ६॥ श्रुत को पढ़-पढ़ तप को तपकर जो तप-श्रुत में निष्ठावान वह साधक आराधक माना दश धर्मों का निश्चय जान। जो श्रद्धा से निज आतम को आराधन में दढ करता साधु-समाधि भावना उर में रात दिवस साधक धरता॥६॥ अन्वयार्थ :[ तवसद-सहिदो] तप और श्रुत से सहित [चेदा] आत्मा। दसधम्मस्स] दश धर्मों का[आराधगो] आराधक [ हवदि] होता है। [ सद्दाए ] श्रद्धा से [दिढकरणं] उसे दृढ़ करना [ तस्स ] उस साधु की [साहसमाहिभावणा] साधु समाधि भावना है। भावार्थ : दश धर्म की आराधना करने वाला साधक तप और श्रुत से युक्त होता है । तपस्या के साथ सम्यक् श्रुतज्ञान को जो धारण करता है वह दश धर्म का वास्तविक आराधक होता है। श्रद्धा से दश धर्मों को और अधिक दृढ़ करना उस साधक की साधु समाधि भावना है। कुछ तपस्वी ऐसे होते हैं जो श्रुत की भावना से दूर होते हैं, जिस कारण उन्हें क्रोध, मान आदि विकारी भाव
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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