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________________ बतलाए हैं। वहाँ लिखा है कि आत्म-उत्कर्ष और दूसरे के यश का घात करने की भावना से नीच गोत्र का आस्रव होता है। हे उच्चगोत्रीय साधक ! अपने आपके उत्कर्ष की भावना होने पर ही दूसरे का उत्कर्ष सहन नहीं हो पाता है। दूसरे के यश को घात करने का विचार भी इसी आत्मोत्कर्ष की भावना से जन्मता है। इन दोनों भावों का जिस आत्मा में सद्भाव है, वह सधर्मी के साथ रह ही नहीं सकता है और इसी कारण दोनों साधु साध्वी की भावना आहत होती है। इसी कारण से साधु समाधि भावना नहीं रह पाती है। उच्चगोत्रीय इस संयम की अवस्था को धारण करके नीचगोत्रीय भाव करना ऊपर की मंजिल पर पहुँचकर पुनः धरातल पर आने जैसा है। अत: पहले अपने मन को समझाओ, शान्त करो और फिर दूसरे के साथ व्यवहार करो। दोनों का चित्त प्रसन्न रहेगा और निर्विकल्प बनेगा, यही पराश्रित साधु समाधि भावना है। हे साधक ! मन में कलुषित विचार उत्पन्न होने में दूसरे को दोष मत दो। इसे अपनी साधना की कमी मानो। इसे अपनी चित्त की उदारता का अभाव मानो। चित्त में परहितकारी व्यापक सोच का अभाव होने से ही कलुषता उत्पन्न होती है। ऐसी कलुषता जब भी उत्पन्न हो तुरन्त उस साधक से प्रेमपूर्ण व्यवहार करो और उसके गुणों की प्रशंसा करके समाधान प्राप्त करो। अब स्व-पराश्रित साधु समाधि भावना कहते हैं दुहिदो परावमाणे सग-पर-कल्लाणपरो जो साहू। आदम्मि जस्स सद्धा साहु-समाहि-भावणा तस्स॥४॥ स्वयं दुखी जो हो जाता है देख दूसरों का अपमान और देखना चाहे नित जो निज-पर का हितकर सम्मान। आत्म रूप में रुचि रखता है करा रहा रुचि आतम में साधु समाधि भावना उसके प्रतिपल पलती आतम में॥४॥ अन्वयार्थ : [परावमाणे] पर का अपमान होने पर [ दुहिदो ] जो दुःखित होता है [ जो साहू ] और जो साधु [सग-पर-कल्लाणपरो] स्व-पर कल्याण में तत्पर रहता है तथा [जस्स] जिसकी [सद्धा] श्रद्धा [आदम्मि] आत्मा में रहती है [ तस्स ] उस साधु को [ साहु समाहि भावणा] साधु-समाधि भावना होती है। भावार्थ : जो साधु-समाधि की भावना में तत्पर रहता है वह दूसरों का अपमान देखने पर दु:खी हो जाता है। हृदय से वह साधु अन्य साधु का अपमान सहन नहीं कर पाता है। वह नहीं चाहता कि किसी को भी बुरा सुनना पड़े, या अपमानित होना पड़े। उस साधु की श्रद्धा आत्मा में सदा रहती है। अपनी आत्मा और परकीय आत्मा की भलाई में तत्पर रहने वाले उस साधु को सदैव साधु-समाधि भावना बनी रहती है। अब मरण समय की साधु समाधि भावना दिखाते हैं
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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