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________________ तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान के शरीर पर स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि १०८ शुभ लक्षण होते हैं, उनको लक्ष्य करके जो व्रत, तप होता है उसे द्रव्य तपोविधि कहते हैं । कैलासगिरि, सम्मेद शिखर, गिरनार, चंपापुर, पावापुर आदि निर्वाण क्षेत्र के उद्देश्य से ११,५१, १०८ आदि संख्या में उपवास करना भी क्षेत्र तपोविधि है । अथवा उन-उन क्षेत्रों निर्वाण प्राप्त तीर्थंकर के उद्देश्य से किसी तिथि विशेष से, टोंक की संख्यानुसार, गणधर आदि की संख्यानुसार भी तप किए जा सकते हैं। तीर्थंकर जिनेन्द्र के पंचकल्याणक की तिथियों के उद्देश्य से किए गये तप को काल तपोविधि कहते हैं । तथा जिनेन्द्र भगवान् के तेरह प्रकार का चारित्र, बारह भावना, बावीस परीषहजय, ध्यान के भेद आदि रूप से जो तप किए जाते हैं वह भाव तपोविधि है । मरण निकट जानकर आयुपर्यन्त के लिए आहार आदि का त्याग करना निराकांक्ष तप है । २. अवमौदर्य तप- अपनी भूख से कम खाना अवमौदर्य तप है। चाहे एक ग्रास, दो ग्रास कम खावे वह भी अवमौदर्य तप है। भूख से कम खाने से इंद्रियाँ वश में रहती हैं, स्वाध्याय आदि का निर्वहन अच्छे ढंग से होता है और उत्तर गुणों को पालने की भावना बनती है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने प्रवचनसार में श्रमण के लिए प्रतिदिन अवमौदर्य करने की प्रेरणा दी है। श्रमण यथालब्ध, पूर्णोदर से कम भोजन लेवे। ३. रस परित्याग तप- तप की वृद्धि के लिए यह तप किया जाता है। दूध, दही, घी, तैल, गुड़ और नमक ये छह रस हैं। इनमें से किसी एक, दो अथवा सभी का त्याग रस परित्याग है । अथवा खट्टा, मीठा, कड़वा, कसायला और चरपरा इनमें से किसी एक, दो या सभी रस का त्याग करना भी रस परित्याग तप है। I ४. वृत्ति परिसंख्यान तप- दाता, भोजन, भाजन, गृह, गली, संख्या आदि किसी भी वस्तु का संकल्प लेकर भोजन की गवेषणा करना वृत्ति परिसंख्यान है । यह तप अपने भाग्य की परीक्षा के लिए, अन्तराय कर्म को जीतने के लिए किया जाता है। श्रमण के लिए बिजली की तरह दाता के सामने से गुजर जाना चाहिए। एक बार, या अधिक बार भी घूमकर, चक्कर लगाकर विधि देखी जा सकती है। किन्तु किसी श्रावक को सामने खड़ेकर बार-बार उसकी विधि को देखना या हूं, हाँ हाथ के इशारे से विधि का मिलान करवाना अनुचित है। ऐसा करने से इस तप का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। मुनिराज राम ने पाँच दिन का उपवास लेकर यह नियम लिया कि यदि वन में आहार मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं। एक राजा और रानी ने संयोग वश उन्हें आहार देकर पुण्य लाभ लिया। इसी तरह के अपने भाग्य, पुण्य की परीक्षा के लिए यह तप होता है। ५. कायक्लेश तप- पर्यंकासन, वीरासन आदि आसनों के द्वारा शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप है। इस तप का उद्देश्य शरीर की सहन शक्ति को बढ़ाना तथा कष्ट सहने का अभ्यास करना है। ६. विविक्त शय्यासन तप- जहाँ पर स्त्री वेदी तिर्यंचों और मनुष्यों, स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों, देवांगनाओं का आवागमन न हो ऐसे स्थान पर शयन करना, आसन लगाना या बैठना, एकान्त वास करना विविक्त शय्यासन तप
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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