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________________ संकल्प ग्रहण करना चाहिए। श्रावक के छह आवश्यक में भी तप है । अतः तप सभी के लिए सर्वसिद्धिदायक है। अभ्यन्तर तप किससे बढ़ता है, यह कहते हैं अब्भंतर वढ्ढीए बाहिरतवकारणं परिक्खादं । सत्तीए तवकरणं अणुगूहियवीरिओ होदि ॥ २॥ अन्तरंग तप की वृद्धि का कारण बाहर का तप है जिस तप से संक्लेश न होवे वह अन्तर का साधक है। यथाशक्ति तप करना तपसी शक्ति छिपाना धर्म नहीं उस तप से क्या अर्थ रहा यदि तपो भावना पुनः नहीं ॥ २ ॥ अन्वयार्थ : [ अब्भंतरवढीए ] अभ्यंतर वृद्धि में [ बाहिरतव कारणं ] बाह्य तप कारण [ परिक्खादं ] कहा गया है [ सत्तीए ] शक्ति के अनुसार [ तवकरणं ] तप करना [ अणुगूहिय- वीरिओ ] अनिगूहित वीर्य वाला [ होदि ] होता है। भावार्थ : दोनों प्रकार के तप में अभ्यन्तर तप की वृद्धि बाहरी तप के द्वारा होती है । बाह्य तप शरीर की शक्ति की अपेक्षा रखता । बाह्य तप यदि शक्ति अनुरूप होता है तो वह अन्तरंग तप की वृद्धि करता है अन्यथा संक्लेश होता है। तप का प्रयोजन कर्म निर्जरा और परिणामों की विशुद्धि है । शक्ति अनुसार तप करना इसीलिए कहा है परिणामों में संतुलन बना रहे । ध्यान, विनय आदि अन्तरंग तप हैं, इनकी वृद्धि के लिए किया गया तप ही वस्तुत: बाह्य तप है अन्यथा वह कायक्लेश मात्र रह जाता है। तप बारह प्रकार का है। उसमें छह प्रकार के बाह्य तप हैं। इसे बाह्य तप इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें बाह्य द्रव्य आहार आदि की प्रमुखता रहती है और बाह्य द्रव्य प्रत्यक्ष दिखाई देता है। दूसरा कारण है इस बाह्य तप को अन्यमती साधु भी पालन करते देखे जाते हैं। १. अनशन - चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है। खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय के प्रकार से चार प्रकार का है। इस आहार का त्याग यदि कुछ काल के लिए होता है तो उसे साकांक्ष अनशन तप कहते हैं । साकांक्ष का अर्थ है कि मैंने एक, दो आदि दिन के लिए आहार आदि का त्याग किया है। इतने समय तक के लिए अपने मन की आकांक्षा को रोका है, इसलिए यह साकांक्ष तप है । इस साकांक्ष तप में बनाई गई काल मर्यादा के बाद ग्रहण करने की आकांक्षा है । कनकावली, एकावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रत इसी साकांक्ष बाह्य तप में आते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को लक्ष्य करके यह तपो विधि चार प्रकार की भी होती है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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