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________________ णाणेसु सुदं णाणं भावसुदेण परिणदं होदि। तेणेव परिणदो सो णाणमभिक्खं विजाणादि॥५॥ वैसे तो सिद्धान्त शास्त्र में पाँच ज्ञान गाये जाते मति श्रुत अवधि मन:पर्यय औ केवलज्ञान नाम पाते। किन्तु ज्ञान श्रुत भाव रूप से परिणत होता मात्र यही। इसी भाव में परिणत ज्ञानी निजानुभूति का पात्र सही॥५॥ अन्वयार्थ : [णाणेसु] ज्ञानों में [ सुदंणाणं] श्रुतज्ञान [ भावसुदेण] भावश्रुत से [ परिणदं] परिणत [ होदि] होता है [तेणेव] उससे ही [परिणदो सो] परिणत हुआ वह जीव [णाणं] ज्ञान को [ अभिक्खं] निरन्तर [विजाणादि] जानता है। भावार्थ : पांच ज्ञानों में श्रृतज्ञान ही स्वार्थ, परार्थ के भेद से दो प्रकार का होता है। श्रुतज्ञान ही द्रव्य श्रुत, भाव श्रुत के भेद से भी दो प्रकार का होता है। यह द्रव्य श्रुतज्ञान जब भाव श्रुत रूप से परिणत होता है तो वह आत्मा निर्विकल्प आत्मानुभव की दशा में होता है। भाव श्रुतज्ञान से परिणत आत्मा ही निश्चय ज्ञानी है। वह स्वसंवेदन-ज्ञान से निरन्तर ज्ञानोपयोग का संवेदन करता है। ऐसा जीव ही अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी कहलाता है। और किस भावना से ज्ञानोपयोगी होता है? णाहं सरीरं ण हि दिस्समाणं, वत्थु ण कम्म ण मणो ण वाचं। आदम्मि णिच्च बहु भावमाणो, भव्वो हि णाणस्सुवजोगजुत्तो॥६॥ जो कुछ हमें दिखाई देता वह पदार्थ मम रूप नहीं मैं शरीर ना वचन रूप ना कर्म रूप मन रूप नहीं। मैं आतम हूँ ज्ञान मात्र हूँ नित्य भावना में लवलीन ज्ञान मात्र उपयोग मात्र रस ज्ञानी पी पी होता पीन॥६॥ अन्वयार्थ : [अहं ] मैं [ सरीरं] शरीर [ण ] नहीं हूँ[ दिस्समाणं वत्थु ] दिखाई देने वाली वस्तु [ण हि ] नहीं हूँ [ कम्मंण ] कर्म नहीं हूँ[ मणो ण ] मन नहीं हूँ [ वाचं ण] वचन नहीं हूँ [ आदम्मि] आत्मा में [ णिच्चं] नित्य [ बहुभावमाणो] बहुत भावना करता हुआ [ भव्वो ] भव्य जीव [ हि ] ही [णाणस्सुवजोगजुत्तो] ज्ञान के उपयोग से युक्त होता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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