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________________ जानते हो क्यों? क्योंकि बाह्य क्रियाओं में उसे जीव दया और धर्म नहीं दिखता था। भगवान् ने एक निगोद शरीर में अनन्त जीवों का निवास कहा है, इसकी विशाल व्याख्या करके भी जहाँ निगोद जीव रहते हैं ऐसी हरित घास पर चलने में उसे पीड़ा नहीं हुई। अनन्त एकेन्द्रिय जीवों के घात का पाप लग रहा है, ऐसा भाव उसके भीतर नहीं आया। महाव्रती एकेन्द्रिय जीवों का घात करके महाव्रती नहीं रह सकता है। जिसे एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा का भाव नहीं तो वह महाव्रती कैसे हो सकता है? गुणस्थान कषायों के अभाव में भावों की विशुद्धि से बनते हैं। भावों की स्थिरता बाहरी द्रव्य क्रिया के आश्रित होती है। द्रव्य शुद्धि है तो भाव शुद्धि भी होगी, यह नियामक नहीं है। बाह्य द्रव्य शुद्धि के साथ भाव शुद्धि हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है, किन्तु जब कभी भी भाव शुद्धि बनेगी तो द्रव्य शुद्धि के साथ ही होगी, ऐसा नियम है। बाह्य द्रव्य क्रिया का सम्बन्ध अन्तरंग के गुणस्थान से रहता है। इसलिए संवर-निर्जरा की व्रतादि क्रिया के साथ ही जब ज्ञान कार्य करता है तभी वह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। विषय विरक्त साधु ज्ञानोपयोगी है णाणप्पगमप्पाणं मुणिऊण अण्णणेयविसएसु। साहू विरज्जहियओ णाणमभिक्खं विजाणादि॥२॥ ज्ञान सुगुण से भरा हुआ है आतम पूरा चारों ओर निज स्वभाव को यूँ विचारकर अन्य विषय पर ना है गौर। इष्ट-अनिष्ट विषय को जो नित ज्ञेय मात्र ही जान रहा वह विरक्त साधू ही जग में ज्ञान भावनावान रहा॥ २॥ अन्वयार्थ : [ णाणप्पगं] ज्ञानात्मक [ अप्पाणं] आत्मा को [ मुणिऊण ] जानकर [ साहू ] साधु [अण्णणेय-विसएस] अन्य ज्ञेय विषयों में [विरज्ज-हियओ] विरक्त हृदय वाला होता है [णाणं] वह ज्ञान को [अभिक्खं] निरन्तर [विजाणादि] अनुभव करता है। भावार्थ : आत्मा से भिन्न अन्य पदार्थ ज्ञेय हैं। इन ज्ञेय पदार्थों में जो साधु पुरुष राग, द्वेष से रहित होकर विरक्त हृदय वाला होता है। जो अपनी ज्ञानमय आत्मा का निरन्तर संवेदन करता है वह साधु अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी है। सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र का सेवन करने वाला ज्ञानोपयोगी है णाण हि णायगो खलु सम्मइंसणचरित्तभावेसु। दोण्हं वि सेवमाणो णाणमभिक्खं विजाणादि॥३॥
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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