SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. णिरदियार सीलभावणा पंच य अणुव्वयाइं महव्वदाइं वि भावणासहिदा । अइचाराणि य तहा वीरजिणिंदेहिं उत्ताणि ॥ १ ॥ धर्म देशना के अवसर पर यत्र तत्र विचरण करते अणुव्रत और महाव्रत का ही वीर प्रभु वर्णन करते । बिन अतिचार इसी संयम का भाव सहित नित पालन कर तथा भावना के पौरुष से भाग्यवाद का वारण कर ॥ १ ॥ अन्वयार्थ : [ अणुव्वयाइं ] अणुव्वयाइं अणुव्रत [ पंच ] पांच हैं [ य ] और [ महव्वदाई ] महाव्रत [वि] भी पांच हैं [ भावणा सहिदा ] ये भावना सहित हैं [ तहा य ] तथा [ अइचाराणि ] अतिचारों को [ वीरजिणिंदेहिं ] वीर जिनेन्द्र देव ने [ उत्ताणि ] कहा है । भावार्थ : वीर भगवान् ने पांच महाव्रतों को और पांच अणुव्रतों को कहा है। अणुव्रत श्रावकों के लिए कहे हैं । और महाव्रत श्रमणों के लिए कहे हैं । अणुव्रत और महाव्रत अतिचार सहित और भावना सहित कहे हैं । व्रतों के पांचपांच अतिचार और पांच-पांच भावनाएं हैं। भावनाओं से व्रतों में दृढ़ता आती है और अतिचारों का चिन्तन करने से व्रत निर्दोष बने रहते हैं। हे भव्यात्मन् ! सुनो- इन महाव्रतों और अणुव्रतों को भगवान् महावीर ने अपनी दिव्यवाणी से कहा है। भगवान् ने क्या कहा है? हमें उनकी आज्ञा पालन करने को आज्ञा सम्यक्त्व मानकर मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए । भगवान् ने क्या देखा? कैसे देखा? इस विषय में इतना ज्ञान ही पर्याप्त है कि भगवान् के केवलज्ञान में प्रत्येक द्रव्य के अनन्त गुण और भूत तथा आगामी काल की अनन्त पर्यायों को प्रत्यक्ष के समान जाना जाता है । केवलज्ञान की यह विशदता केवलज्ञानावरणी कर्म के क्षय से उत्पन्न हुई है। यह भगवान् के ज्ञान का अद्भुत परिणमन है। इस ज्ञान के विषय में तर्कणा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा असम्भव है। सबसे पहला सम्यग्दर्शन आज्ञा सम्यक्त्व है। सबसे पहला ध्यान आज्ञा विचय धर्मध्यान है । सम्यग्दृष्टि का सबसे प्रथम गुण भगवान् सर्वज्ञ की आज्ञा मानना है, न उनकी सर्वज्ञता का निश्चयात्मक एक पहलू पकड़कर पुरुषार्थहीन बनना है। प्रतिक्रमण पाठ जिसे मुनिराज प्रत्येक चतुर्दशी को करते हैं, वह प्रतिक्रमण भगवान् गौतम गणधर द्वारा रचित है, ऐसा वृद्ध परम्परा से श्रवण गोचर होता आ रहा है। उस प्रतिक्रमण पाठ में गौतम गणधर स्वयं कहते हैं किहे आयुष्मान्! मैंने जो भगवान् की दिव्यध्वनि से सुना , उसे सुनो इस भरत क्षेत्र में देव, असुर और मनुष्यों से सहित, सर्वप्राणियों को कर्म की परवशता से अन्य स्थान से यहाँ आना, , यहाँ से अन्यत्र जाना, मरण करना, जन्म लेना, कर्मों का बन्ध, कर्मों से मुक्त होना, इन्द्र, चक्रवर्ती की ऋद्धियां, आयुकर्म की स्थिति, तेज, कर्मों की अनुभाग शक्ति, तर्कशास्त्र, कला, विद्या, मानसिकता, पूर्व अनुभूत
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy