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________________ जिसके उदय फलों में होता जगजीवोंको अनुपम शर्म॥८॥ अन्वयार्थ : [ मोक्खमग्गी ] जो मोक्षमार्गी जीव [ सम्मत्तसुद्धो] सम्यक्त्व से शुद्ध [ समदासमेदो ] समता से सहित और [ वच्छल्लभावेण ] वात्सल्य भाव से [ सुहोवजुत्तो ] शुभोपयोग से सहित है [ सो ] वह [हु ] निश्चित ही [तेलोक्क जीवाणसुहाकरं] त्रैलोक्य के जीवों को सुख का आकर [कम्मं] कर्म का [समायादि] आस्रव करता है। भावार्थ : मोक्षमार्गी जीव ही इन षोड़श कारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है। मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन कही है। सम्यग्दृष्टि जीव अविरत अवस्था में भी भावों की विशुद्धि से तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध करता है। सम्यक्त्व की विशुद्धि से इस कर्म प्रकृति का आस्रव होता है। समत्व भाव से सहित जीव शुद्धोपयोग के निकट होता है। प्रवचन वात्सल्य के शुभ राग से वह शुभोपयोगी भी यदि होता है, तो इस भावना के प्रभाव से इस महान् पुण्य प्रकृति का बन्ध करता है। यह कर्म सभी द्रव्य कर्म में अतिशय पुण्य वाला कर्म है। इस कर्म के फल से तीर्थंकर के तीर्थ की प्रवृत्ति चिरकाल तक होती रहती है। इस कर्म का उदय अरिहन्त दशा प्राप्त कर लेने पर तेरहवें गुणस्थान में होता है। अरिहन्त दशा में यह कर्म अपना सही फल देता है। अरिहन्त दशा से पूर्व जिस भव में इस कर्म का उदय आना निश्चित है, उस मनुष्य पर्याय में गर्भ से पहले ही कर्म का प्रभाव दिखने लगता है। सत्त्व दशा में रहकर भी कर्म का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि गर्भ में आने के छह मास पूर्व से ही माता-पिता के आंगन में रत्नवृष्टि होने लगती है। यह रत्नवृष्टि पन्द्रह मास तक प्रतिदिन तीनों संध्या कालों में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की होती है। जन्म के समय इन्द्र का ऐरावत हाथी से आना, बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाना और अभिषेक कराके वापस लाना, माता-पिता को पुत्र सौंपकर हर्षित होकर ताण्डव नृत्य करना, तदनन्तर देवों का आना, तप कल्याणक मनाया जाना। यह सब अरिहन्त अवस्था से पूर्व की अवस्था में उस कर्म प्रकृति के उदय नहीं होने पर भी फल दिखने लगते हैं। इतना ही नहीं जो जीव तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व के साथ नरक पर्याय में दुःख भोग रहे हैं आगामी मनुष्य पर्याय की आयु बन्ध का काल जब नरक में आता है तो नरक में अन्त के छह मास पर्यन्त देव लोग वज्रकपाट की रचना करके उन्हें नरक के दुःखों से बचाते हैं। ऐसे सर्वातिशय पुण्य बन्ध का कारणभूत कर्म का आस्रव समस्त भव्य जीवों के लिए सुख का भण्डार है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने भी इस कर्म की प्रशंसा करते हुए भाव पाहड में लिखा है कि विसय विरत्तो समणो छ।सवरकारणाइं भाऊण। तित्थयर णाम कम्मं बंधड़ अडरेण कालेण॥ भाव पाहुड़ ७९ अर्थात् विषयों से विरक्त श्रमण सोलह कारण भावनाओं को भाकर शीघ्र ही तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध कर लेता है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने इस काल में भी तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का उल्लेख किया है, इसलिए यह सम्भावना की जाती है कि आज भी इस पंचम काल में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है। अन्य किसी के लिए यह सम्भव हो या न हो किन्तु विषयों से विरक्त श्रमण के लिए यहाँ अवश्य कहा गया है। इस पंचम काल में भी ऐसे विषय विरक्त श्रमणों की इतनी पवित्र मनोदशा है और पंचम काल के अन्त तक भी बनी रहेगी। उन वीतराग श्रमणों के चरणों में यह वीतराग श्रमण प्रणाम करके इस कृति को पूर्ण करके अपार आनन्द का अनुभव कर रहा है। इस आत्मा को आनन्द, कार्य की पूर्णता का नहीं आ रहा है किन्तु इन पवित्र भावनाओं के आलम्बन का आ रहा है, जिससे
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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