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________________ अन्वयार्थ :[जो] जो [साहू ] साधुपुरुष [सहधम्मिं] सहधर्मी की [हीलदि] अवहेलना करता है [सो] वह [अप्पणो ] अपने आत्मा के [ धम्मं ] धर्म की [ हीलदि] अवहेलना करता है [ मच्छरिओ ] मात्सर्य से सहित [मोक्खरिऊ] मोक्ष का शत्रु [पवयणवच्छलत्तेण] प्रवचन वात्सल्य से [चुदो ] दूर है। भावार्थ : हे आत्मन्! यह वीतराग भगवान् का कहा मार्ग है। इस मार्ग पर द्वेष, मात्सर्य का किञ्चित भी स्थान नहीं है। जिसने अभी वैर भाव या ईर्ष्या भाव नहीं जीता, वह वीतराग मार्ग पर आरूढ़ कैसे हो सकता है? वीतराग होने से पहले वीतद्वेष होना आवश्यक है। यद्यपि राग, द्वेष साथ-साथ रहते हैं किन्तु मोक्षमार्ग पर द्वेष के बिना राग तो रह सकता है। यह राग प्रशस्त राग है जो मोक्षमार्गी के लिए आवश्यक है। ध्यान रहे कि द्वेष कभी भी प्रशस्त नहीं भी कषायवश मनसा वाचा शरीरेण प्रहार करना भी प्रशस्त द्वेष नहीं है। माँ का पुत्र के लिए ताड़न द्वेष नहीं किन्तु राग की परिणति है। गुरु का शिष्य के लिए ताड़न भी द्वेष नहीं किन्तु प्रशस्त राग की परिणति है। द्वेष में हित नहीं होता है। राग के साथ हित छिपा रहता है। और सुनो! प्रशस्त राग बढ़ने पर अहित नहीं करेगा और उससे अप्रभावना नहीं होगी किन्तु प्रशस्त निमित्तों में किया गया द्वेष बढ़ने पर अहित करेगा और अप्रभावना करेगा। प्रशस्त राग के साथ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र बना रहता है। सराग सम्यग्दर्शन, सराग ज्ञान और सराग चारित्र शुभोपयोग की दशा में रहते हैं। सराग रत्नत्रय ही व्यवहार मोक्षमार्ग है। इस सरागता से वीतरागता की प्राप्ति होती है। किसी की अवमानना का भाव द्वेष से आता है। द्वेष से ही मात्सर्य उत्पन्न होता है। हे साधक! जीवन की आधारशिला से द्वेष की कीली निकाल फेंको। समिति-गुप्ति-व्रत-नियम से फले फूले संयम वृक्ष की जड़ों में ईर्ष्या का कीड़ा नहीं लगने दो। 'अप्रभावना से बचो तो प्रभावना हो जाएगी।' आचार्य गुरुदेव का यह मूलमन्त्र वृद्ध गुरु परम्परा से आया है। प्रवचन वात्सल्य से ही ऐसे सूत्र शिष्यों के हितार्थ गुरु-मुख से नि:सृत होते हैं। आचार्य समन्तभद्र देव का यह वाक्य सदैव स्मरणीय है कि- 'न धर्मो धार्मिकैर्विना' अर्थात्- धर्म धार्मिक के बिना नहीं होता है। धार्मिक की निन्दा और अवहेलना से तो अपने आत्मधर्म की अवहेलना होती है। ऐसा विचार कर प्रवचन अर्थात् सधार्मिक जनों से वात्सल्य भाव की भावना करो। अब इस प्रवचन वत्सलत्व की भावना का उपसंहार करते हैं सम्मत्तसुद्धो समदासमेदो वच्छल्लभावेण सुहोवजुत्तो। तेलोक्कजीवाणसुहाकरं सो कम्मं समायादि ह मोक्खमग्गी॥८॥ जो विशद्ध समकित भावों से समता सख में डब रहा प्रेम भाव सब आतम पर रख शुभ भावों में खूब रहा। इसी भाव से आतम बांधे तीन लोक सुखकारक कर्म
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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