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________________ पाओगे । निश्चय तो आत्मा में आत्मा का स्थित हो जाना है। यह लक्ष्य है । यह लक्ष्य बाद में प्राप्त होगा। कभी भी साध्य की या लक्ष्य की प्राप्ति पहले नहीं होती है। पहले साधन की, लक्षण की प्राप्ति करनी होती है। दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति साधन से साध्य की प्राप्ति करने का तरीका ही बताता है। जब बुद्धि में आग्रह और आत्मा में मिथ्यात्व का उदय रहता है तो वस्तु तत्त्व उलटा कर दिया जाता है। और उस उलटे तथ्य को ही रहस्य बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। आत्मन्! जिसे तुम निश्चय चारित्र कह रहे हो, वह भी व्यवहार चारित्र ही है । यह तो सभी को स्वीकार्य है कि जब तक आत्मा में कषायों का अभाव नहीं होगा तब तक आत्मा में धारण किया गया व्रत, तप मिथ्या है किन्तु कषायों के अभाव से उत्पन्न आत्मा की परिणति को निश्चय चारित्र कहने की भूल मत करो । व्रत, तप, संयम धारण करने से ही आत्मा में कषायों का अभाव होता है। बिना व्रत, संकल्प के कभी भी कषायों का स्वतः अभाव नहीं हो सकता है। पहले कषायों का अभाव हो फिर हम व्रत, तप लेंगे, ऐसी उलटी गंगा पचास-साठ वर्ष से पहले कभी नहीं बही। यदि ऐसा माना जाएगा तो यह मानना पड़ेगा कि तीर्थंकर को जब वैराग्य होता है तो, कपड़े पहने हुए ही, आभूषण धारण किये ही, केश-लोंच करने से पहले ही उन्हें सातवाँ गुणस्थान हो गया। ऐसी स्थिति में कपड़ों में ही सातवाँ गुणस्थान मानना पड़ेगा । यदि वस्त्राभूषण पहने हुए ही संयम का भाव उत्पन्न हुआ मानोगे तो परिग्रह सहित दशा में ही निर्ग्रन्थता, अप्रमत्त गुणस्थान और संयम भाव मानना पड़ेगा। ऐसा तो किसी भी आचार्य ने नहीं माना। यह मानना तो श्वेताम्बर मत का समर्थन होगा । वस्त्र सहित को छठवाँ गुणस्थान, आगम के विरुद्ध है, जिनवाणी का गला घोंटना है। सातवाँ गुणस्थान मानना विचार करो ! यदि पहले ही कषायों का क्षय हो जाएगा तो फिर किसी-किसी को उसी अवस्था में केवलज्ञान भी हो जाएगा । श्वेताम्बर लोग वस्त्र सहित मुक्ति ऐसे ही सिद्ध करते हैं । भगवान् महावीर के लिए भी वे यही कहते हैं कि उनके शरीर पर एक कपड़ा था। उन्होंने उस कपड़े का त्याग नहीं किया था । वह कपड़ा झाड़ियों में उलझकर हट गया था। भगवान् महावीर सचेल (वस्त्र सहित ) थे। एकान्तवाद की यह उलटी धारा उसी व्यक्ि ने यहाँ आकर चलाई है जो पहले श्वेताम्बर था । वहाँ उसका कोई आदर नहीं हुआ तो उसने वह धर्म छोड़कर दिगम्बर धर्म अपना लिया। समयसार मात्र पढ़कर लुभावनी प्रवचन शैली से उलटी गंगा बहायी। उसके भीतर का वह संस्कार नहीं मिटा था सो यहाँ आकर भी युक्तियों से उसी श्वेताम्बर धारा का समर्थन किया। सच है ! संस्कार इतनी जल्दी नहीं मिटते हैं । आचार्य समन्तभद्र देव रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्रावक के लिए महाव्रतों की कल्पना करते हैं किन्तु उसे महाव्रती नहीं कहते हैं। क्यों नहीं कहते? क्योंकि भीतर आत्मा में प्रत्याख्यान कषाय का अति सूक्ष्म, मन्दतर उदय भी जब तक चल रहा है तब तक आत्मा में छठवाँ, सातवाँ गुणस्थान नहीं हो सकता है। उस श्रावक को जो सामायिक में बैठा है, अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग से आरम्भ परिग्रह का त्याग करके बैठा है, निर्विकल्प है, आत्म ध्यान में सुदर्शन सेठ की तरह लीन है तो भी उसका सातवाँ गुणस्थान नहीं है । कषाय की अत्यन्त मन्द धारा टूट क्यों नहीं जाती ? क्यों नहीं उसी सामायिक में वह संयम भाव प्रकट हो जाता? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि जब तक संकल्प पूर्वक आजीवन के लिए परिग्रह का त्याग नहीं होगा तब तक भीतर से प्रत्याख्यान कषाय का अभाव नहीं हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि भीतरी कषाय का अभाव बाहरी परिग्रह त्याग के संकल्प पर निर्भर है। मान लो सेठ सुदर्शन नग्न होकर श्मशान में खड़े हैं । उनके पास किसी भी तरह का परिग्रह नहीं है तो भी वह संयमी नहीं हो सकते हैं । मुनि
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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