SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और भी कहते हैं वयणमयं पडिकमण-प्पहुडिव्ववहारदो दु आवस्सं । जो कुणदि णिच्छयत्थं आवस्स्य पुण्णदा तस्स ॥ ८ ॥ प्रतिक्रमण आदिक आवश्यक शब्द बोल जो करता है आवश्यक व्यवहार कहे हैं उनसे भी मन भरता है। मन भर कर फिर वचन बिना जो मौन ध्यान के आश्रय से निश्चय को पा लेता मुनि जो पूर्ण हुआ आवश्यक से ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ : [ वयणमयं ] वचनमय [ पडिकमण-प्यहुदि ] प्रतिक्रमण आदि [ ववहारदो ] व्यवहार से [दु ] भी [ आवस्सं ] आवश्यक [ णिच्छयत्थं ] निश्चय के लिए [ जो ] जो [कुणदि ] करता है [ तस्स ] उसके [ आवस्य पुण्णदा] आवश्यकों की पूर्णता होती है। भावार्थ : हे भव्यात्मन्! वचनमय प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है । जब यह भावों की विशुद्धि उत्पन्न करता है तो भाव प्रतिक्रमण होता है। यह द्रव्य प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाएँ भावमय हैं। केवल समय गुजारने को या करना है इसलिए जो किया करता , वह भाव प्रतिक्रमण नहीं करता है । यह द्रव्य-भावमय प्रतिक्रमण आदि व्यवहार चारित्र कहलाता । इसी व्यवहार चारित्र से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है । अरे स्याद्वादिन् ! सुनो! व्यवहार चारित्र क्रिया रूप है। यह क्रिया बाहर भी दिखाई देगी और भीतर भी महसूस होगी। जब तक यह बाह्य अभ्यन्तर क्रिया चल रही है तब तक समस्त चारित्र व्यवहार चारित्र नाम पाता है । जो इन बाह्य क्रियाओं में अभ्यस्त हो जाता है उसी का आत्मा में ठहरना होता है । आत्मा में स्थित हो जाने का नाम निश्चय चारित्र है । कुछ एकान्तवादियों ने जिनवाणी के सिद्धान्तों को ही बदल दिया। कुछ लोग उलटा राग आलापते हैं। उनका कहना है कि पहले निश्चय चारित्र होता है, फिर व्यवहार चारित्र होता है । पहले चारित्र भीतर उत्पन्न होता है, तब बाहर प्रकट होता है। पहले भीतर से कषायों का अभाव रूप निश्चय चारित्र प्रकट होगा तभी बाहर की क्रिया व्यवहार चारित्र का नाम पाती है। यदि भीतर कषायों का अभाव नहीं है तो बाहर से कोई भी व्रत, तप, चारित्र का नाम नहीं पाता है, वह सब मिथ्या चारित्र है । इसलिए पहले अन्तरङ्ग का निश्चय चारित्र प्राप्त करो, व्यवहार तो बाद में होता रहेगा। भोले आत्मन्! कहीं तुम यह सब सुनकर भटक तो नहीं गए। सोच रहे होगे यह सब सत्य ही तो कहा जा रहा है। इसमें मिथ्या या असत्य जैसा कुछ भी नहीं है । ठहरो! एक दम निर्णय मत कर लेना । एकान्तपक्षी बहुत लुभावना बोलते हैं। उनकी जिह्वा शहद लिपटी तलवार की तरह चलती है। जब तक तुम आगम का समूचा अध्ययन न कर लो तब तक ऐसी बातें सुनकर निश्चय मत कर बैठना । तुम निर्णय और निश्चय में भेद नहीं समझ
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy